ब्लॉग: ग्लेशियर का पानी बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास, देश की पहली ऐसी परियोजना पर उठ रहे कुछ सवाल भी

By प्रमोद भार्गव | Published: July 8, 2022 11:03 AM2022-07-08T11:03:46+5:302022-07-08T11:03:46+5:30

उत्तराखंड में हिमनद (ग्लेशियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है. यह देश की पहली ऐसी परियोजना है. ‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है. हालांकि इसे लेकर कुछ सवाल भी हैं.

Pramod Bhargava's blog: Efforts to transport glacier water to rainy river, country first such project | ब्लॉग: ग्लेशियर का पानी बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास, देश की पहली ऐसी परियोजना पर उठ रहे कुछ सवाल भी

ग्लेशियर का पानी बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास

केन-बेतवा नदी जोड़ो अभियान के बाद उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद (ग्लेशियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है. यदि यह परियोजना सफल हो जाती है तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा. 

हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण शुरू हो गया है. इस परियोजना की विशेषता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा. यही नहीं, एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा. 

‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है. लेकिन इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग का निर्माण कर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों एवं नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा, जो हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा बन सकते हैं. हिमालय के लिए बांधों के निर्माण पहले से ही खतरा बनकर कई मर्तबा बाढ़, भू-स्खलन और केदारनाथ जैसी प्रलय की आपदा का कारण बन चुके हैं.

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में पिंडारी हिमनद है. यह 2200 मीटर की ऊंचाई पर एक बड़ा जलग्रहण क्षेत्र है, इसी से पिंडर नदी निकलती है. यह हिमनद लगभग तीन किमी लंबा और 365 मीटर चौड़ा है. इसमें हमेशा 45 से 55 एमएलडी पानी रहता है. पानी की यही क्षमता इसे एक बड़ी नदी का रूप देती है. पिंडारी हिमनद भले ही कुमाऊं मंडल में पड़ता है, लेकिन पिंडारी हिमनद से मुक्त होते ही पिंडर नदी गढ़वाल मंडल के चमोली जिले में प्रवेश कर जाती है. 

यहां से 105 किमी की दूरी तय कर यह नदी कर्णप्रयाग पहुंच कर अलकनंदा में मिल जाती है. यहीं कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले की बैजनाथ घाटी में कोसी नदी बहती है, जो एक बरसाती नदी है. इसी नदी में हिमनद का बर्फीला पानी 1800 मीटर की ऊंचाई पर एक लंबी सुरंग बनाकर छोड़ा जाएगा. ऐसा कहा जा रहा है कि पिंडर नदी के पानी की उपयोगिता कर्णप्रयाग तक लगभग नहीं है. अतएव यहां से महज दो एमएलडी पानी निकालकर एक बहुत बड़े भू-भाग की आबादी को पेयजल और सिंचाई के लिए पहुंचाना वरदान सिद्ध होगा.

दरअसल नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में पेयजल की व्यवस्था कोसी नदी के पानी से होती है. इन दोनों जिलों में पेयजल की आपूर्ति के लिए नदी की सतह में पंप लगाए गए हैं, बावजूद पानी की कमी बड़ी समस्या बनी हुई है. दावा किया रहा है कि इस परियोजना के माध्यम से पिंडर नदी का पानी कोसी में प्रवाहित हो जाएगा तो दोनों जिलों की आबादी को जीवनदान मिल जाएगा.

हम जानते हैं कि पहले से ही विकास के नाम पर इस क्षेत्र के जल, जंगल और जमीन को बर्बाद किया जा रहा है और अब यदि इस परियोजना की शुरुआत होती है तो पिंडारी हिमनद और पिंडर नदी कहीं अपना अस्तित्व ही न समेट लें, ऐसी आशंकाएं उठ रही हैं. दरअसल हरेक मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं. 

पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं. उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं. ये रिक्टर पैमाने पर 3 से कम होते हैं, इसलिए इनका तात्कालिक बड़ा नुकसान देखने में नहीं आता, लेकिन इनके कंपन से हिमालय में दरारें पड़ जाती हैं. नतीजतन भू-स्खलन और चट्टानों के खिसकने जैसी त्रासदियों की संख्या बढ़ गई है. ये छोटे भूकंप हिमालय में किसी बड़े भूकंप के आने का स्पष्ट संकेत हैं. 

वरिष्ठ भूकंप वैज्ञानिक डॉ. सुशील रोहेला का कहना है कि बड़े भूकंप जो रिक्टर पैमाने पर छह से आठ तक की क्षमता के होते हैं, उनसे पहले अक्सर छोटे-छोटे भूकंप आते हैं. इन भूकंपों की वजह से थ्रस्ट प्लेट खिसक जाती है, जो बड़े भूकंप के आने की आशंका जताती है.

हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है. टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था. पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और हिमनदों से निकलने वाली सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो इनका पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है. लेकिन औद्योगिक-प्रौद्योगिक विकास के लिए इन्हें नजरअंदाज किया गया. इसीलिए 2013 में केदारनाथ दुर्घटना के बाद ऋषि-गंगा परियोजना पर भी बड़ा हादसा हुआ था. 

इस हादसे में डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो गए ही, संयंत्र भी पूरी तरह ध्वस्त हो गया था, जबकि इस संयंत्र का 95 प्रतिशत काम पूरा हो गया था. उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं. इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़ी की जाती हैं. 

इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है. नतीजतन पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं. 

Web Title: Pramod Bhargava's blog: Efforts to transport glacier water to rainy river, country first such project

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