Parliament winter session: तृणमूल कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य कल्याण बनर्जी की उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ को लेकर की गई ‘मिमिक्री’ खासी चर्चाओं में है. एक तरफ जहां स्वयं धनखड़ सारे मामले को अपना और अपने पद का अपमान बता रहे हैं, तो दूसरी ओर सत्ता पक्ष इस विवादास्पद कृत्य को लेकर आगबबूला है.
हालांकि विपक्ष मामले को हलके में लेकर बात आई-गई करने की कोशिश में जुटा है. महाराष्ट्र में तो राजनेताओं के मखौल उड़ाने के न जाने कितने उदाहरण हैं और मजेदार बात यह है कि उनमें कोई भी दल पीछे नहीं है. अनेक नेताओं की पहचान उनके भाषणों के बीच की गई ‘मिमिक्री’ से ही है.
सब जानते ही हैं कि एकपात्री नाटक या उससे थोड़ा आगे ‘मिमिक्री’ पहले कभी मनोरंजन का साधन होती थी, किंतु कालांतर में वह राजनीतिक व्यंग्य और कटाक्ष का माध्यम बन गई. इसे कई पेशेवर कलाकारों ने अपनी लोकप्रियता से कमाई का साधन बना लिया. कई को सोशल मीडिया के साथ भी सहारा मिला.
किंतु राजनीति में भी प्रतिभाशाली व्यक्तियों की कमी नहीं होने से अनेक नाम सामने आए. इनमें सबसे बड़ा नाम महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे का था. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता छगन भुजबल, शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के आदित्य ठाकरे, सुषमा अंधारे जैसे अनेक नाम अक्सर अपनी सभाओं में किसी न किसी नेता की ‘मिमिक्री’ करते दिख जाते हैं.
राज ठाकरे की ‘मिमिक्री’ में महाराष्ट्र के ज्यादातर प्रमुख नेताओं का मखौल उड़ाया जाता है, तो बाकी नेता अवसर के अनुसार अपनी अदा को बदल देते हैं. ‘मिमिक्री’ का लक्ष्य चाहे कुछ भी हो, कुछ देर आम जनता के मनोरंजन का साधन जरूर बनती है और उसे वर्तमान परिदृश्य में लंबे समय तक सोशल मीडिया पर देखा जाता है.
चूंकि सरकार या राजनीतिज्ञों से अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर कहीं न कहीं उसमें हताशा या निराशा की आड़ में नेताओं का मजाक उड़ाया जाता है, इसलिए भावनात्मक आधार पर उसे पसंद भी किया जाता है. आमतौर पर अखबारों के कार्टून और हिंदी साहित्य की व्यंग्य गद्य-पद्य विधा भी इसी कार्य को पूरा करती है.
मगर सीमा उल्लंघन पर स्वाभाविक रूप से विवाद भी खड़ा होता है, चाहे वह कार्टून हो या फिर कविता या किसी ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ की मिमिक्री हो. इन सबके साथ राजनीतिज्ञों की छिपी प्रतिभा का अपनी खुशी-अपना गम होता है. महाराष्ट्र के राजनीतिक में राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री, मंत्री और राजनेता तक अपने विरोधियों के निशाने पर रहे.
चुनाव सभा हो या फिर विरोध सभा, कोई न कोई नेता अपनी छिपी प्रतिभा का प्रदर्शन कर ही देता है. हालांकि राज्य के नेताओं ने कभी अपनी ‘मिमिक्री’ का विरोध नहीं किया. कुछ ने जवाब देने की कोशिश अवश्य की, लेकिन हंगामा नहीं हुआ. शिवसेना के कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री की भी ‘मिमिक्री’ की, लेकिन उसे अधिक तवज्जो नहीं दी गई.
स्पष्ट है कि ‘मिमिक्री’ को अधिक महत्व नहीं दिए जाने से किसी विवाद को जन्म नहीं मिला और उन्हें करने वालों को अचानक कोई अलग पहचान नहीं मिली. इससे साफ हुआ कि राज्य में ‘मिमिक्री’ को लेकर नेताओं में अधिक गंभीरता नहीं है और वे उसे महत्व देकर मामले को हवा देने में विश्वास नहीं रखते हैं.
इसे मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप, आलोचना-सराहना का नियमित सिलसिला चलता है. इसके बीच ही राज्य में वरिष्ठ नेताओं में राकांपा प्रमुख शरद पवार हों या फिर कांग्रेस के सुशील कुमार शिंदे, बहुजन महासंघ के प्रकाश आंबेडकर हों या फिर नई पीढ़ी में वर्तमान उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस जैसे नेता अपनी बात रखने में मर्यादा का पूरा ध्यान रखते हैं.
अतीत में भी शिवसेना प्रमुख स्वर्गीय बाल ठाकरे हों या भाजपा के स्वर्गीय प्रमोद महाजन, या फिर कांग्रेस के स्वर्गीय विलासराव देशमुख हों, जिन्हें उनके संबोधन के लिए पहचाना जाता था, ने कभी-भी किसी तरह की ‘मिमिक्री’ का सहारा लेते हुए अपनी बात को रखने की कोशिश नहीं की.
सभी ने अपनी बात आक्रामक और तीखे शब्दों में रखी, लेकिन किसी ने मखौल उड़ाने को अपनी बात रखने का जरिया नहीं बनाया. अतीत के सापेक्ष देखा जाए तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि यदि वक्ता की बात में दम है तथा उसके पास तथ्य और तर्क दोनों हैं तो उसकी बात सुनी जाती है. संबोधनकर्ता से लोग सहमति जताते हैं.
हाल के दिनों में नेताओं की घटती विश्वसनीयता और संबोधनों से मोहभंग होने का परिणाम भाषणों में चुटीले अंदाज का चुटकुलों में बदल जाना है. उनमें वह सब डालना जिससे श्रोताओं का मनोरंजन हो और वे संबोधन के आखिरी तक डटे रहें. इसी में एक स्थान ‘मिमिक्री’ को मिला है, जो राजनीति की गंभीरता को ही समाप्त कर रही है.
किसी व्यक्ति विशेष को तथ्य, तर्क और विचारों के आधार पर पराजित न कर पाने की स्थिति में उपहास के सहारे अपमानित करना या गरिमा का पतन करना वर्तमान राजनीति का एक हिस्सा बनता जा रहा है. संसद के द्वार पर जो तृणमूल कांग्रेस के सांसद बनर्जी ने किया, वह अचानक नहीं हुआ.
उसे करने के लिए हिम्मत पिछले कई सालों में मिली. जो गली-मोहल्ले की सभाओं से लेकर संसद परिसर तक पहुंच गई है. अब भी कुछ नेता बनर्जी के कृत्य को हास्य-व्यंग्य की आड़ में ढंकने का प्रयास कर रहे हैं. किंतु यह राजनीतिक हस्तक्षेप सभी मर्यादाओं को पार कर रहा है.
इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे. सार्वजनिक जीवन में हर व्यक्ति की अपनी गरिमा होती है और वह सार्वजनिक संपत्ति की तरह नहीं होता है. संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की गरिमा, मर्यादा और गंभीरता सर्वोच्च होती है. उसे कम करने का विचार भी मन में नहीं लाया जा सकता है. दुर्भाग्य से यह राजनीति का बिगड़ा रूप है और इसे कोई टोकने वाला तो नहीं है, लेकिन वीडियो बनाकर समाज में प्रसारित करने वाले बहुत हैं.