युद्ध ही नहीं, शांति के मोर्चे पर भी पराक्रम जरूरी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: October 4, 2018 05:17 AM2018-10-04T05:17:55+5:302018-10-04T05:17:55+5:30

राक्रम पर्व मनाने के पीछे कुछ भी उद्देश्य रहा हो, यह तय है कि पराक्रम शांति के मोर्चे पर भी जरूरी होता है।

Opinion: Power is not only war but also on the front of peace | युद्ध ही नहीं, शांति के मोर्चे पर भी पराक्रम जरूरी

युद्ध ही नहीं, शांति के मोर्चे पर भी पराक्रम जरूरी

विश्वनाथ सचदेव

दो साल पहले, 29 सितंबर 2016 को, पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर सीधा हमला करके देश ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि हमारी सेनाएं देश के सम्मान और संप्रभुता की रक्षा करने में समर्थ हैं। जिस तरह हमारे बहादुर सैनिकों ने पाक के ठिकानों पर हमला किया और अपना मिशन पूरा कर लौट आए, वह इस बात का भी स्पष्ट संकेत था कि यदि भारत चाहता तो यह सर्जिकल स्ट्राइक बड़े पैमाने पर भी हो सकती थी। पर हमने ऐसा नहीं किया।

भारत बार-बार यह कहता रहा है कि हमारी सेनाएं देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए हैं। इतिहास साक्षी है कि हमने कभी किसी देश पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए हमला नहीं किया और इतिहास इस बात की गवाही भी देता है कि 1962 के चीनी हमले के समय हम भले ही कुछ गफलत में रह गए थे, लेकिन पिछले सत्तर वर्षों में जब भी किसी ने हम पर हमला करने की कोशिश की है, हमारे बहादुर सैनिकों ने उसका मुंह तोड़ जवाब दिया है। चाहे वह 1947 का कश्मीर पर कथित कबाइलियों का हमला हो या 1965 का पाकिस्तानी हमला या 1971 की लड़ाई या फिर कारगिल पर पाकिस्तान का कायराना हमला, हमने हर जगह दुश्मन के इरादों को विफल किया है। अपनी इस विजय पर गर्व करने का हमें पूरा अधिकार है। 

दुनिया भर के देश अपनी सेनाओं के शौर्य और पराक्रम के जश्न मनाते हैं। ये आयोजन जहां एक ओर अपने नागरिकों को यह आश्वासन देते हैं कि देश अपनी रक्षा करने में समर्थ है, वहीं दूसरी ओर यह उन सैनिकों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन भी है जिन्होंने हमारी रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इस दृष्टि से देखें तो शौर्य दिवस अथवा पराक्रम पर्व  मनाना स्वयं को भी आश्वस्त करने की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। सर्जिकल स्ट्राइक की विजय के पर्व को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

लेकिन दो साल पहले उठाए गए एक महत्वपूर्ण कदम को याद करते समय हमें यह भी याद रखना चाहिए कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं होता। दो विश्व-युद्धों के बाद, और परमाणु हथियारों के उपयोग के बाद, दुनिया को यह तो समझ आ ही जाना चाहिए कि युद्ध स्थायी समाधान नहीं हो सकता।

सच तो यह है कि युद्ध में हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला पक्ष भी बहुत कुछ खोता है। इस बहुत कुछ का अर्थ और उदाहरण महाभारत  है इसीलिए हम हमेशा शांति की बात करते रहे हैं। सैनिक तैयारियों में भले ही भारत ने कभी कमी न की हो, पर यह बात हम बार-बार दुहराते रहे हैं कि हम युद्ध को विकल्प नहीं, विवशता ही मानते हैं। जहां तक पाकिस्तान के साथ युद्धों का सवाल है, हम हर बार जीते हैं। पर हकीकत यह भी है कि इस जीत को हमने पाकिस्तान पर किसी प्रकार कब्जा करने के रूप में नहीं देखा। सच तो यह है कि युद्ध हमारी नीति नहीं है, और नियति भी नहीं। 

युद्ध का विरोध करने वालों को देश-द्रोही कहना एक फैशन-सा बनता जा रहा है। लेकिन, जरूरी है कि पराक्रम पर्व  मनाते समय कहीं न कहीं हमें यह भी याद आए कि पराक्रम सिर्फ तोप और तलवार से ही नहीं दिखाया जाता। 1965 में जब लालबहादुर शास्त्री के नेतृत्व में हमारी सेनाएं लाहौर तक पहुंचने के बावजूद लौटी थीं, तो वह भी हमारे पराक्रम का एक उदाहरण है। फिर जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों को युद्ध-बंदी बनाने के बावजूद हमने शिमला समझौता किया तो वह भी हमारा पराक्रम ही था।

कारगिल की चोटियों पर फिर से तिरंगा फहराने के बाद जब हमारे तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान को शांति-वार्ता के लिए मजबूर किया तो वह भी हमारे पराक्रम का ही एक उदाहरण था। वाजपेयी ने कहा था, हम पड़ोसी चुन नहीं सकते, पर पड़ोसी को सही और उचित सलाह तो दे ही सकते हैं। आज फिर इस सही और उचित की बात करने की आवश्यकता है। 

इस दौरान पाकिस्तान का रुख किसी भी दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता। आतंकवादी हमलों के माध्यम से पाकिस्तान लगातार अपनी नासमझी और खतरनाक इरादों का उदाहरण देता रहा है। हम युद्ध करने में सक्षम हैं, पर हम युद्ध करना नहीं चाहते, यह भारत की नीति रही है। जरूरत इस नीति के औचित्य को सिद्ध करने की है।

 कोई रास्ता निकालना ही होगा पाकिस्तान को यह समझाने के लिए कि युद्ध या आतंकवादी गतिविधियों से वह अपना ही नुकसान कर रहा है। युद्ध नहीं शांति ही समस्याओं का समाधान है, कभी न कभी पाकिस्तान को यह बात समझनी ही होगी, और भारत को भी इसे हमेशा याद रखना होगा। पराक्रम पर्व मनाने के पीछे कुछ भी उद्देश्य रहा हो, यह तय है कि पराक्रम शांति के मोर्चे पर भी जरूरी होता है। दोनों देशों को उस पराक्रम की आवश्यकता है। यह बात जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना  अच्छा है। 

लेखक जाने-माने स्तंभकार  हैं।

Web Title: Opinion: Power is not only war but also on the front of peace

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