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एन. के. सिंह का ब्लॉग: कश्मीर पर नेहरू के पास विकल्प क्या थे?

By एनके सिंह | Updated: October 6, 2019 05:28 IST

आज जब नेहरू को गलत ठहराने की कोशिश की जा रही है और ‘सच्चा इतिहास’ लिखने की बात कही जा रही है तो क्या किसी ने गहराई से तत्कालीन तथ्यों का बेबाक विवेचन किया? क्या यह पता किया गया कि नेहरू के पास विकल्प क्या-क्या थे और नेहरू न होते तो वास्तव में कश्मीर भारत का अंग रह पाता भी या नहीं?

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कश्मीर पर हुए पाकिस्तान-समर्थित कबायली हमले के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत भारत ने 1 जनवरी, 1948 को सुरक्षा परिषद में शिकायत की जिसका जवाब पाकिस्तान ने इसी अनुच्छेद का सहारा लेते हुए 15 जनवरी को दिया और 20 जनवरी को परिषद का संकल्प (रिजोल्यूशन) संख्या 39 आया. परिषद ने बगैर पूछे मुद्दे को चालाकी से ‘कश्मीर का मुद्दा’ से ‘भारत-पाकिस्तान विवाद’ का शीर्षक दे दिया और दोनों देशों से शांति बहाल करने की अपील की. तत्कालीन प्रधानमंत्नी नेहरू को भारत के साथ हुए धोखे का अहसास हो गया था. फरवरी को अपनी बहन और मास्को में भारत की राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित को लिखे एक पत्न में उन्होंने कहा, ‘मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि सुरक्षा परिषद इस तरह का पक्षपात कर सकता है. इन लोगों से दुनिया में व्यवस्था बनाए रखने की अपेक्षा थी. लेकिन अब समझ में आ रहा है कि क्यों दुनिया आज टुकड़ों में बंट रही है. अमेरिका और ब्रिटेन ने एक घिनौना खेल खेला है, और शायद इसमें परदे के पीछे से ब्रिटेन ने मुख्य किरदार निभाया है’.

आज जब नेहरू को गलत ठहराने की कोशिश की जा रही है और ‘सच्चा इतिहास’ लिखने की बात कही जा रही है तो क्या किसी ने गहराई से तत्कालीन तथ्यों का बेबाक विवेचन किया? क्या यह पता किया गया कि नेहरू के पास विकल्प क्या-क्या थे और नेहरू न होते तो वास्तव में कश्मीर भारत का अंग रह पाता भी या नहीं?

देश छोड़ते समय देश के 40 प्रतिशत भू-भाग पर लगभग 566 छोटी-बड़ी रियासतों का शासन था. अंग्रेजों ने इन्हें भारत या पाकिस्तान में विलय के अलावा अपने को संप्रभु घोषित करने की छूट दी थी. नेहरू ने सरदार पटेल का राजाओं पर प्रभाव और दृढ़ता के मद्देनजर उन्हें 27 जून, 1947 को राज्यों के विलय के लिए बनाए गए मंत्नालय का अतिरिक्त प्रभार भी दिया. इस विभाग के सचिव बने वीपी मेनन. इन दोनों नेताओं और इनके द्वारा प्रतिपादित विलय सिद्धांत की समस्या यह थी कि जहां दक्षिण में हैदराबाद और पश्चिम में जूनागढ़ का शासक मुसलमान था और जनता हिंदू, वहीं कश्मीर में शासक हिंदू था और जनता में 77 प्रतिशत मुसलमान. साथ ही यह राज्य पड़ोसी पाकिस्तान और चीन से सटा था. अगर रायशुमारी होती तो भरोसा नहीं था कि मुसलमान किस तरफ जाते. 22 अक्तूबर, 1947 के कबायली हमले के अगले दिन अखबार ट्रिब्यून लिखता है  ‘जिन्ना टोपी’ हर जगह दिखाई दे रही थी’. उधर महाराजा हरि सिंह को उनका प्रधानमंत्नी रामचंद काक और एक बाबा राजगुरु यह सलाह देते रहे कि अपने को स्वायत्त घोषित करें, जबकि गांधी, नेहरू, माउंटबेटन और तमाम राष्ट्रीय नेता उन्हें परोक्ष या प्रत्यक्ष तौर पर भारत में विलय पर हस्ताक्षर करने की सलाह देते रहे.

हाराजा ने जून, 1947 में चार दिन तक कैंप करते रहे माउंटबेटन से अंत मे दस्त आने के बहाने मिलने से इनकार कर दिया और उनके प्रधानमंत्नी द्वारा 12 अगस्त को भेजे गए एक टेलीग्राम के जवाब में पाकिस्तान से ‘स्टैंडस्टिल’ (यथास्थिति) समझौता किया, हालांकि अगले दो माह में ही उसका उल्लंघन करते हुए पाकिस्तान ने कबायलियों के साथ अपनी फौजें भेज दीं. ऐसे में सरदार पटेल तो यहां तक राजी थे कि कश्मीर अगर पाकिस्तान के साथ जाना चाहता है तो जाए. पर नेहरू को अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, माउंटबेटन की मदद और कश्मीरी मुसलमानों के पाकिस्तान के बरअक्स  भारत के प्रति झुकाव पर भरोसा था, लेकिन पूरा इत्मीनान नहीं. उधर यही डर जिन्ना को भी था, जिसका खुलासा माउंटबेटन ने किया था.    

22 अक्तूबर को हुए कबायली हमले के बाद तीनों सेनाओं के प्रमुख, जो अंग्रेज थे, ने एक असाधारण संयुक्त वक्तव्य जारी किया जो ऐसा था- ‘24 अक्तूबर को कमांडर-इन-चीफ को सूचना मिली कि कबायलियों ने मुजफ्फराबाद पर कब्जा कर लिया है. यह हमले का पहला संकेत है. इस दिन के पहले भारतीय सेना को कश्मीर भेजने की योजना तो दूर, सोचा भी नहीं गया था’. यह वक्तव्य भारत की मंशा को दुनिया को दिखाने के लिए एक बड़ा सबूत था. उधर पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल जिन्ना ने दोनों देशों की तीनों सेनाओं के सुप्रीम कमांडर जनरल आचिनलेक से भारतीय सेना के खिलाफ औपचारिक रूप से पाक सेना को कूच करने का आर्डर देने को कहा. उनका कहना था कि चूंकि कश्मीर में कबायलियों को खदेड़ने का काम भारतीय सेना द्वारा किया जा रहा था, लिहाजा पाकिस्तान को भी सेना भेजनी चाहिए. जनरल ने साफइनकार किया. जाहिर है माउंटबेटन ही नहीं, सुप्रीम कमांडर भी पाक को हमलावर मान रहे थे और भारत को आत्मरक्षा में सैनिक उतारने वाला.  

कश्मीर के विलय के चार दिन बाद यानी एक दिसंबर, 1947 को कश्मीर के महाराजा को लिखे एक पत्न में नेहरू ने बताया, ‘जाड़े का प्रकोप बढ़ गया है और भारतीय सेना और वायुयान अपनी पूरी क्षमता से लड़ नहीं पाएंगे जबकि दूसरी ओर के आक्रमणकारी पूरी तरह स्थिर हो चुके हैं. ऐसे में हमारी योजना है कि उधर पाकिस्तान का ध्यान संयुक्त राष्ट्र में उठाए गए मुद्दे पर रहे और हम धीरे-धीरे लेकिन पूरी दृढ़ता से उन भागों पर कब्जा कर सकें जो पाक सेना की मदद से कबायलियों ने हासिल किया है. जब तक सुरक्षा परिषद कोई फैसला लेता है तब तक हम अपनी जमीन वापस ले चुके होंगे’. इस बीच उन्हें यह भी उम्मीद थी कि बेहतर प्रशासन और भरोसा दे कर वह कश्मीरी मुसलमानों को अपनी ओर खींच लेंगे और जनमत उनके हित में जाएगा. यही कारण था कि यूएन में मामला अनुच्छेद 35 के तहत लाया गया न कि अनुच्छेद 51 के तहत जिसमें सुरक्षा परिषद को सीधी कार्रवाई की शक्ति थी. लेकिन नेहरू अंग्रेज-अमेरिकी धूर्तता को समझ नहीं सके.

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