Muslim political: महाराष्ट्र में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार साढ़े ग्यारह प्रतिशत से अधिक माना जाने वाला मुस्लिम संप्रदाय हाल के लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद राजनीतिक नेतृत्व के गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है. कभी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा)से कोई मुस्लिम नेता सियासत की कुर्सियों पर आगे बैठा दिखाई देता था, मगर वर्ष 2014 में दोनों दलों के सत्ता से बेदखल होने के बाद से राज्य की एक बड़ी आबादी का कोई अपना नजर नहीं आ रहा है. बीते पांच सालों में महाविकास आघाड़ी और महागठबंधन के सामने आने से चुनावी संघर्ष बहुसंख्यक मतों के बीच जा पहुंचा.
जिससे अल्पसंख्यक समाज के नेता हाशिये पर जा पहुंचे हैं. राज्य में लगभग साठ विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम मतदाता अपना प्रभाव रखता है, लेकिन ताजा चुनाव में केवल दस ही विधायक चुनाव जीत पाए. वैसे इतिहास गवाह है कि चुनावी मुकाबलों में मुस्लिमों को अपनी आबादी के हिस्से के बराबर स्थान कभी नहीं मिल पाया.
इसलिए वर्तमान स्थिति को अपवाद नहीं कहा जा सकता है. राज्य विधानसभा के हालिया चुनाव में कुल 420 मुस्लिम प्रत्याशी थे, जो कुल उम्मीदवारों के लगभग 10 प्रतिशत थे. किंतु राज्य की 288 सदस्यीय विधानसभा सीटों के चुनाव में करीब 150 स्थानों पर एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं था, जबकि 50 सीटों पर केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार ने किस्मत आजमाई.
इन सब में से सिर्फ 10 जीतकर विधानसभा पहुंच सके, जो विधानसभा की कुल सदस्य संख्या की तुलना में तीन फीसदी से कुछ अधिक थे. चुनाव में कांग्रेस ने नौ मुसलमानों को टिकट दिया था, जिनमें से तीन चुनाव जीते और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने सबसे ज्यादा 14 मुस्लिमों को टिकट दिया, जिनमें से एक ही जीत सका.
इनके अलावा करीब 218 मुस्लिम निर्दलीय भी चुनाव मैदान में थे. इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो राज्य में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायकों के जीतने का आंकड़ा 13 है, जो वर्ष 1972, 1980 और 1993 के चुनावों में सामने आया था. वहीं, दूसरी ओर वर्ष 1990 में सिर्फ सात मुस्लिम विधायक बन पाए थे.
विधानसभा के अलावा पिछले 64 वर्षों में प्रदेश से निर्वाचित 614 लोकसभा सांसदों में से केवल 15 या 2.5 प्रतिशत से कम मुस्लिम थे, जो सिलसिला अकोला से वर्ष 1962 में मोहम्मद मोहिबुल हक से आरंभ होकर वर्ष 2019 में इम्तियाज जलील पर आकर समाप्त हो जाता है. इस बीच, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को रायगढ़ से वर्ष 1989, 1991, 1996, 2004 में लोकसभा में नुमाइंदगी का अवसर मिला. चुनावी राजनीति से अनेक नेताओं के नाम संप्रदाय के नेतृत्व के रूप में सामने आए, लेकिन चुनाव में पराजय मिलने के बाद वे सभी धीरे-धीरे किनारे हो गए हैं.
राज्य में रफीक जकारिया, अंतुले, निहाल अहमद, बाबा सिद्दीकी जैसे नेतृत्व के बाद प्रो. जावेद खान, अमीन खंडवानी, नसीम अहमद, आसिफ जकारिया, हुसैन दलवाई, आरिफ नसीम खान, नवाब मलिक, हसन मुश्रीफ, अबु आजमी, बाबा जानी दुर्रानी, पाशा पटेल, अनीस अहमद, वारिस पठान और इम्तियाज जलील आदि अनेक नाम सामने आते हैं.
परंतु कांग्रेस में रहते हुए अनेक नेता अपनी सीमाओं में बंध गए. वही हाल कुछ राकांपा के नेताओं का हुआ. एआईएमआईएम के नेताओं का ‘रीचार्ज’ पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की आवाजाही पर ही निर्भर रहता है. ठीक उसी तरह की स्थिति जो कांग्रेस में पार्टी हाईकमान को लेकर बनी रहती है. लिहाजा जन आकांक्षाओं पर पूरी तरह विश्वास बनना मुश्किल ही हो चला है.
इसका प्रमाण विधानसभा चुनाव में संप्रदाय के एक वर्ग की नाराजगी के रूप में दिखा था. समाजवादी पार्टी(सपा) के नेता आजमी राज्य में स्वतंत्र रूप से काम करने की क्षमता तो रखते हैं, लेकिन हर बार गठबंधन के चक्कर में इतने उलझ जाते हैं, कि खुद का संगठन ही बौना कर देते हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान एआईएमआईएम और सपा दोनों ने ही धर्मनिरपेक्ष मतों के लिए गठबंधन के प्रयास किए.
जिसमें ठोस जवाब के अभाव में उन्हें असफलता हाथ लगी. हालांकि आजमी आघाड़ी का हिस्सा बने रहे. कांग्रेस और दोनों राकांपा धर्मनिरपेक्षता का भाव रखते हैं, लेकिन भाजपा-शिवसेना के साथ भगवा मतों के मुकाबले में मुस्लिम नेतृत्व को आगे लाने में संकोच करते हैं. यही वजह है कि दोनों दलों के पुराने मुस्लिम नेता अपनी जगह पर ही सिमट कर रह गए हैं.
आगे नए के आने की संभावना ही नहीं दिखती. भाजपा और शिवसेना का शिंदे गुट, दोनों ही राज्य स्तर पर मुस्लिम नेतृत्व को बढ़ावा देने के प्रति गंभीर नहीं हैं. उन्होंने पिछली सरकार में मंत्री रहे अब्दुल सत्तार को अपनी नई पारी में मंत्री तक नहीं बनाया. हालांकि राकांपा अजित पवार गुट से हसन मुश्रीफ मंत्री बनाए गए हैं, लेकिन वह कोल्हापुर तक ही सीमित हैं.
कांग्रेस ने शायर इमरान प्रतापगढ़ी को महाराष्ट्र से राज्यसभा में भेजा, लेकिन उनकी चिंता राष्ट्रीय तथा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अधिक, महाराष्ट्र में कम ही है. उन्हें चुनाव के अवसरों पर ही राज्य में देखा जाता है. राज्य की एक बड़ी आबादी जब भगवाकरण के प्रभाव में कहीं स्वयं को असहज महसूस कर रही है, तो इस स्थिति में मुस्लिम नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वह उसे वोट बैंक के बाहर से भी देखे.
वह संप्रदाय की समस्याओं को सुलझाने के लिए सरकार के साथ सेतु बनकर सामने आए. संगठनात्मक रूप से भी कांग्रेस और राकांपा जैसे दल अपने मुस्लिम नेताओं को प्रमुखता तथा नए अवसर देने के लिए आगे आएं. यदि संप्रदाय विशेष का रहनुमा बनकर कोई दल सामने आता है तो धर्मनिरपेक्ष दलों का प्रयास उससे मुकाबला करने का होना चाहिए, न कि हार मान कर किसी कोने में बैठ जाना चाहिए.
राज्य के उत्तरी कोंकण, खानदेश, मराठवाड़ा और पश्चिमी विदर्भ में मुस्लिम संप्रदाय की अच्छी आबादी है. यह जानते हुए ध्रुवीकरण और सांप्रदायीकरण से बचाव के लिए एक ईमानदार कोशिश की जानी चाहिए. तभी सबका साथ, सबका विश्वास के साथ सबका विकास हो पाएगा. वर्ना असंतुलन के परिणाम असंतोष के रूप परिवर्तित होते रहेंगे.