-अवधेश कुमारयह सच हमें स्वीकार करना होगा कि अगर कोई सरकार साहस के साथ दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाए तो सरकारी स्तर पर हिंदी को उसका उपयुक्त स्थान मिलने की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी। सरकारें जाती आती रहीं लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा आज तक नहीं हुआ। जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 में पहली बार राजग की सरकार बनी तो हिंदी को उसका न्यायसंगत स्थान दिलाने तथा देश की एकता को भाषायी आधार पर सुदृढ़ किए जाने की उम्मीद बलवती हुई। आखिर वाजपेयी हिंदी सेवी ही नहीं रहे, स्वयं उन नेताओं में शामिल थे जिन्होंने संघ लोक सेवा आयोग के सामने हिंदी के लिए धरने में भागीदारी की थी, संसद में उसके पक्ष में जोरदार भाषण दिया था। किंतु अपने छह वर्ष के कार्यकाल में उस सरकार ने हिंदी के लिए कुछ नहीं किया। अब कें द्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है। स्वयं नरेंद्र मोदी गुजराती और हिंदी में ही स्वयं को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करते हैं। इस सरकार से भी वर्षो से ठिठकी हुई हिंदी को कुलांचे मारने की स्थिति में लाने की उम्मीद थी और है।
नरेंद्र मोदी से इसलिए भी ऐसी उम्मीद बंधी थी, क्योंकि उनकी सरकार में ऐसा कोई समूह है ही नहीं जो हिंदी का मुखर विरोधी हो। हिंदी विरोध के लिए सबसे कुख्यात राज्य तमिलनाडु रहा है। वहां की कोई पार्टी इनकी सरकार में भागीदार नहीं है। दूसरा विरोध बंगाल के कुछ समूहों का था। वहां की भी कोई दूसरी पार्टी सरकार में भागीदार नहीं है। हिंदी के लिए साहस के साथ कदम उठाने से भाजपा और उसके सहयोगी दलों को राजनीतिक लाभ मिलने की भी संभावना है। यह दु:ख का विषय है कि अभी तक के कार्यकाल में सरकार के एजेंडे में हिंदी के माध्यम से देश के साथ न्याय करने की सोच उम्मीद के अनुरूप दिख नहीं रही है।
हिंदी का अर्थ भारत की वास्तविक स्वतंत्रता है। भाषा की गुलामी के रहते हम अपने को पूर्ण आजाद नहीं मान सकते। मोदी सरकार के सामने परिस्थितियां भी अनुकूल हैं। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। तमिलनाडु के अंदर का हिंदी विरोध 2014 के चुनाव में जितना कम दिखा वैसा पहले नहीं देखा गया। वहां हिंदी के पोस्टर तक जगह-जगह देखे गए जिसे कहीं फाड़ा नहीं गया। यह वहां के सामूहिक मनोविज्ञान में साधारण बदलाव का द्योतक नहीं है। वस्तुत: सभी गैर हिंदी भाषी राज्यों में अब यह भावना व्यापक हुई है कि हिंदी से बिल्कुल अलग होकर हम पर्याप्त प्रगति नहीं कर सकते, न मुख्यधारा के पूरी तरह अंग हो सकते हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि सरकार के सामने हिंदी को उसका उचित स्थान देने का स्वर्णिम अवसर है। आप इतिहास निर्माण कर सकते हैं। भारत की वास्तविक आजादी और इसकी एकता अखंडता को सुदृढ़ करने की दिशा में इससे बड़ा कोई कदम हो नहीं सकता। सरकार के पास जितना समय बचा है अगर उसका ही पूरा सदुपयोग किया जाए तो भविष्य के नेताओं के सामने भी हिंदी अंगीकार करने की दिशा में आगे बढ़ने के सिवाय कोई चारा नहीं रहेगा।(अवधेश कुमार वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)