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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को चाहिए सामाजिक सुरक्षा

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: June 18, 2020 12:32 IST

औपचारिक क्षेत्र में पेंशन का क्षेत्र जरूर बढ़ा है. इस समय अनौपचारिक श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के बारे में विधेयक पर विचार चल रहा है. इसका मसौदा अक्तूबर 2019 में प्रस्तुत हुआ था और संसद के मानसून सत्र में विधेयक को प्रस्तुत होना है.

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कोविड-19 के व्यापक प्रसार को थामने के लिए 25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन किया गया. इस आकस्मिक बंदी ने जन-जीवन को बुरी तरह से अस्त-व्यस्त कर दिया. लोग घरों में कैद हो गए और अपने संसाधनों का संयम के साथ उपयोग करते हुए कई तरह की पाबंदियों के बीच जीना शुरू किया. परंतु इस बंदी का सबसे घातक असर उन लाखों दिहाड़ी मजदूरों के ऊपर पड़ा जो मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, सूरत और अहमदाबाद जैसे महानगरों में छोटे-मोटे काम कर जीवन-यापन कर रहे थे. 

अपने काम  से हाथ धो बैठे मजदूरों को कुछ ही दिनों में खाने के लाले पड़ने लगे

अचानक हुई बंदी ने उद्योग जगत पर तो ब्रेक लगाया ही, गली-मोहल्ले में रेहड़ी लगाने या घरों में सहायक के काम की भी मनाही कर दी. बहुत से मजदूर ऐसे भी हैं जिनको बकाया मजदूरी नहीं मिली. कुल मिलाकर शहर तटस्थ हैं. अपने में मशगूल वे अपनी समृद्धि की सुरक्षा और उसकी बढ़ोत्तरी की चिंता करने में लगे हैं. अपने काम  से हाथ धो बैठे मजदूरों को कुछ ही दिनों में खाने के लाले पड़ने लगे और बंदी को लेकर अनिश्चय के कारण उनको कुछ नहीं सूझा तो शहर का डेरा छोड़ उनके कदम अपने-अपने  गांवों की दिशा में बढ़ चले. वे जो भी साधन मिला उसी के सहारे चल दिए. आगे क्या होने वाला है, इसका कोई खाका उनके सामने न था, न कोई  जमापूंजी ही थी कि कोई ठोस विकल्प खोज पाते. इन भ्रमों के बीच वे अपनी पुश्तैनी जगह वापस जा रहे थे  जिसे उन्होंने अच्छे अवसरों के लोभ में कभी छोड़ दिया था. बाद में श्रमिक एक्सप्रेस भी चली और कुछ जगह वायुयान से भी मजदूरों की घर वापसी हुई. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही था कि मानवीयता को छोड़ यह सब राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच की राजनीतिक खींचतान की अव्यवस्था के बीच हुआ परंतु पूरा घटनाक्रम इन मजदूरों के लिए सामाजिक (अ!)सुरक्षा के प्रश्न को छेड़ता है.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपयों का आर्थिक पैकेज जारी किया पर इसमें भी काफी देर हुई

दिहाड़ी मजदूरी करने वाले श्रमिक भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण हिस्से हैं और उनका अनुपात भी बहुत बड़ा है. इसके बावजूद उनका महत्व आंकने और उनके लिए आवश्यक व्यवस्था करने की कोई सार्थक और प्रभावी व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई है. वे श्रमिक तो हैं पर ‘असंगठित’ (अनआर्गेनाइज्ड) या अनौपचारिक (इनफार्मल) क्षेत्र के हैं. यानी उनकी पहचान अस्पष्ट है और उसी तरह उनके लिए उनके मालिकों के दायित्वों का प्रावधान भी अनिश्चित है. वे कर्मचारी हैं पर किसके, यह तय नहीं है और इसलिए उनका जिम्मेदार भी कोई नहीं  है.  इस बीच श्रम कानूनों में कई राज्यों ने उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि से जो बदलाव किया, उसके विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि मजदूरों को रोटी पाने भर की कमाई के लिए यानी सीमित या थोड़े लाभ के लिए अधिक घंटे खटना पड़ेगा. केंद्र सरकार ने बीस लाख करोड़ रुपयों का आर्थिक पैकेज जारी किया पर इसमें भी काफी देर हुई. उस तक साधारण गरीब की पहुंच भी कोई आसान बात नहीं है.  

भारत के केवल 9.3 प्रतिशत श्रमिक ही सुरक्षा के दायरे में हैं

उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के केवल 9.3 प्रतिशत श्रमिक ही (कुल 46.6 करोड़ में से) सामाजिक सुरक्षा के दायरे में हैं. अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति जटिल होती रही है. आम तौर पर वे जीविका के स्रोत बदलते रहते हैं. यह उनकी अपनी जरूरत और श्रम के बाजार की जरूरतों या अवसरों पर निर्भर करता है. वे एक काम छोड़कर दूसरा काम हाथ में ले लेते हैं, दिहाड़ी, भवन-निर्माण, खेती-किसानी, फल, सब्जी की रेहड़ी लगाना आदि काम वे मौसम के हिसाब से बदल-बदल कर करते रहते हैं. अभी तक इनके लिए व्यापक सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था विकसित नहीं हो सकी है. 

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

औपचारिक क्षेत्र में पेंशन का क्षेत्र जरूर बढ़ा है. इस समय अनौपचारिक श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के बारे में विधेयक पर विचार चल रहा है. इसका मसौदा अक्तूबर 2019 में प्रस्तुत हुआ था और संसद के मानसून सत्र में विधेयक को प्रस्तुत होना है. सभी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए जो मसौदा विचार हेतु बना है वह अधिक उदार होना चाहिए. ठेके के मजदूरों का जिक्र  ही नहीं  है. व्यवहार में मुख्य नियोक्ता इनको अपने आंकड़ों में नहीं दर्शाता. ऐसी स्थिति में इनकी सामाजिक सुरक्षा की क्या व्यवस्था होगी. वैसे तो सभी नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए और लोकतांत्रिक सरकार को भविष्य की भी चिंता करनी चाहिए. मसौदे में इस लक्ष्य को नजरअंदाज कर दिया गया है और पुराने नियमों और कानूनों को मिला-जुलाकर एक खाका बनाया गया है. कोविड-19 की महामारी ने श्रमिकों के जीवन संघर्ष के कई अछूते आयामों को उभार कर सबके सामने उद्घाटित किया है. आशा है विधेयक में ऐसे प्रावधान होंगे जो श्रमिकों के जीवन स्तर को सुधारने में सहायक होंगे न कि सोचने और कहने की औपचारिकता का निर्वाह करेंगे। 

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