21 महीने बहुत लंबा समय होता है! और खासकर जब जातीय हिंसा की ज्वाला में झुलस रहे मणिपुर जैसे राज्य की बात हो तो यह और भी लंबा प्रतीत होता है. जमाना कहता रहा कि मैतेई और कुकी समुदाय के बीच की ज्वाला के दावानल बन जाने का बहुत बड़ा कारण मुख्यमंत्री के रूप में एन. बीरेन सिंह की नीतियां रहीं. उन्हें पद से हटाने की मांग उठती रही. यहां तक कि भाजपा विधायक दल के भीतर भी मुख्यमंत्री के धार्मिक नजरिए को लेकर आक्रोश पैदा होता रहा. कई विधायक दिल्ली भी गुहार लगा आए लेकिन भारतीय जनता पार्टी का शिखर नेतृत्व ढाल बनकर एन. बीरेन सिंह के साथ खड़ा रहा.
इधर मणिपुर निरंतर जलता रहा. महिलाएं निर्वस्त्र की जाती रहीं, लोगों की हत्याएं होती रहीं, पुलिस के साथ जनजातीय समूह का संघर्ष चलता रहा लेकिन हकीकत यही है कि सरकार ने कुछ नहीं किया. प्रशासनिक सख्ती भी काम नहीं आई. इस बीच यह प्रचारित करने की कोशिश भी की गई कि भारत विरोधी ताकतें इस संघर्ष में षड्यंत्र रच रही हैं. यह बात सही भी हो सकती है क्योंकि पूर्वोत्तर के राज्यों के असंतुष्टों को चीन से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सहायता मिलती रही है.
मणिपुर में हिंसा के दौरान मिलने वाले हथियार इसके प्रमाण हैं. जिस तरह से वहां के गुटों ने अर्धसैनिक बलों पर हमले किए हैं या जवाब दिया है, उससे साफ लगता है कि कोई इन्हें हथियारों की ट्रेनिंग दे रहा है. लेकिन इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि मणिपुर जला ही क्यों? यदि हम अपना घर ठीक रख पाते तो किसी पड़ोसी को षड्यंत्र का जाल बिछाने का मौका नहीं मिलता. ये मौका हमने ही दिया है.
यदि समय रहते एन. बीरेन सिंह को चलता कर दिया जाता तो कुकी समुदाय काफी हद तक शांत हो जाता. जब मामला हाथ से निकल गया और दिल्ली दरबार को लगा कि विधानसभा की बैठक के दौरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ सकता है और भाजपा के कुछ विधायक ही साथ छोड़ सकते हैं तो सरकार गिर जाएगी, इसलिए मुख्यमंत्री का इस्तीफा ले लिया.
वर्ष 2022 में जब भाजपा ने मणिपुर में सरकार बनाई थी तब 60 सदस्यीय विधानसभा में उसके पास 32 विधायक थे. कुछ महीने बाद जनता दल यूनाइटेड के 6 में से 5 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. इस तरह भाजपा की संख्या हो गई 37. इसके बावजूद यदि मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा है तो साफ है कि भाजपा के भीतर गंभीर टूटन की स्थिति है.
दरअसल भाजपा में भी कई कुकी विधायक हैं जो एन. बीरेन के किसी समर्थक मैतेई को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं देखना चाहते हैं. संबित पात्रा कई दिनों तक कोशिश करते रहे लेकिन किसी भी नाम पर सहमति नहीं बन पाई. संभवत: यह पहली बार है जब किसी राज्य में भारतीय जनता पार्टी के विधायक दल में इतनी बड़ी दरार दिख रही है कि वह किसी को नेता न चुन पाए.
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए अलाकमान ने राष्ट्रपति शासन का रास्ता चुना. लेकिन सवाल यह है कि राष्ट्रपति शासन के दौरान क्या मणिपुर के जख्म पर कोई मरहम लगाएगा? आज जरूरत इसी बात की है कि कोई मणिपुर के लोगों को भरोसा दिलाए कि उनके जख्म को हम अपना जख्म समझते हैं और भविष्य में ऐसी कोई हरकत नहीं होगी. मणिपुर को संभालना बहुत जरूरी है. कोई शांति का कितना भी दावा करे, हकीकत यह है कि पूर्वोत्तर आज भी बारूद के ढेर पर बैठा है.