राजेश बादल का ब्लॉगः गांधी के देश में हिंसा की राह पर चली सियासत?

By राजेश बादल | Published: July 2, 2019 06:24 AM2019-07-02T06:24:55+5:302019-07-02T06:24:55+5:30

तेलंगाना में एक विधायक के भाई और समर्थक महिला फॉरेस्ट अधिकारी की पिटाई करते हैं. उसके बेहोश होकर गिर जाने तक मारते रहते हैं. यह अधिकारी अस्पताल में दाखिल होकर चोटों का इलाज करा रही है. महात्मा गांधी के प्रदेश गुजरात में एक विधायक भद्र महिला को सरेआम लातों से मारता है. 

mahatma Gandhi's country violence indian politics situation | राजेश बादल का ब्लॉगः गांधी के देश में हिंसा की राह पर चली सियासत?

राजेश बादल का ब्लॉगः गांधी के देश में हिंसा की राह पर चली सियासत?

दुनिया के सबसे विराट लोकतंत्न के चरित्न में यह परिवर्तन डराने वाला है. सारी दुनिया को अहिंसा की राह दिखाने वाले महात्मा गांधी का अपना देश उनके सिद्धांतों का मखौल उड़ा रहा है. लगता है यह मुल्क जानबूझकर गांधी के खिलाफ बगावत पर उतर आया है. क्या किसी सभ्य समाज को इसकी इजाजत दी जा सकती है? हिंसा कभी भी सियासत का उपकरण नहीं बन सकती. यदि इन दिनों राजनेताओं ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी भूलकर उसके विरुद्ध आचरण करना शुरू कर दिया है तो इसका अर्थ एकदम साफ है कि हिंदुस्तान की जम्हूरियत पर तानाशाही की दीमकें आक्रमण करने के लिए तैयार हैं. देश संभल सके तो संभल जाए. 

तेलंगाना में एक विधायक के भाई और समर्थक महिला फॉरेस्ट अधिकारी की पिटाई करते हैं. उसके बेहोश होकर गिर जाने तक मारते रहते हैं. यह अधिकारी अस्पताल में दाखिल होकर चोटों का इलाज करा रही है. महात्मा गांधी के प्रदेश गुजरात में एक विधायक भद्र महिला को सरेआम लातों से मारता है. 

पार्टी के दबाव में और पुलिस कार्रवाई से बचने के लिए उस महिला को कैमरों के सामने बहन बना लेता है. मध्य प्रदेश में दूसरा विधायक ड्यूटी पर तैनात अफसर को बल्ले से पीटता है. पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी विधायक पिता-पुत्न का बचाव करते हैं तो वे भी पत्नकारों को धमकाते से लगते हैं. जेल की हवा खाकर जमानत पर रिहा विधायक को फिर गांधीगीरी याद आती है, मगर उसे अपने किए पर कोई अफसोस नहीं होता. उल्टे उसके छूटने पर उत्सव मनाया जाता है. 

चुनाव के दरम्यान उत्तर प्रदेश में एक सांसद मीटिंग में साथ बैठे विधायक की पिटाई कर देता है. एक विधायक खनिज अफसर की सार्वजनिक पिटाई करता है. इसी राज्य में ही मुख्यमंत्नी की कवरेज के लिए गए पत्नकारों को जिला कलेक्टर अस्पताल के कमरे में बंद कर देता है. बंगाल में दो राजनीतिक दलों के बीच खूनी संघर्ष कई जानें ले चुका है. केरल में भी सियासी पार्टियों के बीच इस तरह की वारदातें सुर्खियां बन रही हैं. चैनलों पर चर्चा के दौरान राजनीतिक प्रवक्ता मारपीट पर उतर आते हैं. वे पत्नकारों को आए दिन देख लेने की धमकियां दे रहे हैं.

ये तो चंद उदाहरण हैं, जो हाल में ही घटे हैं और विचलित करने वाले हैं लेकिन एक जमाना था, जब सारे राजनीतिक दल अपनी पार्टी के नेताओं की ऐसी हरकतों को बड़ी गंभीरता से लेते थे. स्पष्टीकरण मांगा जाता था और जिम्मेदार पाए जाने पर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई भी की जाती थी. वे काफी समय तक पार्टी में हाशिए पर रहते थे. इससे शिखर स्तर से साफ संदेश जाता था कि दल में इस तरह की हिंसक वारदातों के लिए कोई स्थान नहीं है. लेकिन आजकल यह नेताजी की अतिरिक्त योग्यता बन गई है. जिस नेता के पास यह हुनर नहीं, वह नेतागीरी में वयस्क नहीं माना जाता. 

संभवतया यही कारण है कि इन घटनाओं पर राजनीतिक दलों और संगठनों के पदाधिकारियों ने चुप्पी साध रखी है. पार्टियों की आंतरिक अनुशासन समितियों के कामकाज पर इसीलिए सवाल उठाए जाने लगे हैं. सभी राजनीतिक दलों को अब अपने-अपने दलों के संविधान में भी फेरबदल करना चाहिए, जिसमें ऐसे आचरण पर दंड का प्रावधान हो. 

दरअसल ऐसे राजनेताओं की भी संख्या कम नहीं है, जो इस तरह के व्यवहार को जायज ठहराते हैं. उनका तर्क यह है कि जब अफसरशाही आम अवाम की नहीं सुनती या उनकी उपेक्षा करती है तो मजबूरी में उन्हें इस तरह के कदम उठाने पड़ते हैं. उत्तर प्रदेश के बांदा में एक पूर्व विधायक तो बाकायदा दरबार लगाते थे, जिसमें लोग अपनी शिकायतें लेकर पहुंचते थे. 

उसमें पुलिस और सिविल प्रशासन के अधिकारी भी बुलाए जाते थे. उसमें अगर कोई अधिकारी दोषी पाया जाता था तो उसे वहीं सजा दी जाती थी. किसी को मुर्गा बनाया जाता था तो किसी की पिटाई की जाती थी. उत्तर प्रदेश के कुछ अन्य शहरों में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिले थे. 

बिहार के कुछ बाहुबली राजनेताओं के भी ऐसे ही किस्से सुने जाते हैं. हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत भी हों, मगर निवेदन है कि यह सारा मामला मानसिकता से जुड़ा हुआ है. जब भारतीय लोकतंत्न में संवैधानिक व्यवस्थाओं और संस्थाओं का प्रावधान है तो उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता. विडंबना है कि संविधान की शपथ लेने वाले ही अगर समानांतर कबीला कल्चर या जंगल का कानून लागू करने लगें तो फिर उनके शपथ लेने का मतलब ही क्या है? प्रजातंत्न पर तानाशाही की स्थानीय दीमकों के हमले के खतरे की बात इसी संदर्भ में कही गई थी.

मान भी लिया जाए कि अब हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास अंतिम हथियार के तौर पर यही विकल्प बचा है तो कृपया विधानसभाओं और संसद के जरिए कानूनी संशोधन कर लीजिए, जिसमें प्रत्येक विधायक और सांसद को एक दंडाधिकारी के समान अधिकार मिल जाएं. वह जन प्रतिनिधि अपनी अपनी अदालत लगाए और अपराधियों को दंडित करके जेल भेज दे. इसके बाद हमारे न्यायालयों की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बताए अहिंसा मार्ग की जरूरत भी तब नहीं होगी. बापू के जन्म के डेढ़ सौवें साल में उनके सिद्धांतों का तर्पण करने से बेहतर और क्या श्रद्धांजलि होगी.

Web Title: mahatma Gandhi's country violence indian politics situation

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