ब्लॉग: यह सेवाग्राम गैर-सरकारी ही रहे तो बेहतर!
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: February 5, 2022 09:34 AM2022-02-05T09:34:35+5:302022-02-05T09:39:37+5:30
आज साबरमती आश्रम पर सरकार की नजर है. सरकार उसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना चाहती है, जैसा जलियांवाला बाग को कर रही है. ये दोनों स्थल अपने-अपने स्तर पर भारतीय समाज को प्रेरणा देने का ही काम करेंगे.
केंद्र सरकार गांधीजी के साबरमती आश्रम पर बारह सौ करोड़ की लागत से भव्य पर्यटन स्थल विकसित करना चाहती है तो छत्तीसगढ़ सरकार भी अपनी नई राजधानी नया रायपुर में वर्धा के गांधी आश्रम की तर्ज पर सेवाग्राम बना रही है.
कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने 3 फरवरी को इस योजना का शिलान्यास भी किया. सरकार रायपुर में ‘अमर जवान ज्योति’ जैसी परियोजना की भी घोषणा कर चुकी है. दोनों योजनाओं का अभिनंदन है.
अमर जवान ज्योति सरकार के अधीन रहे, तभी उसकी देख-रेख अच्छे से हो सकती है, लेकिन सेवाग्राम को अगर सरकार अपने नियंत्रण में रखेगी तो गांधीजी के सेवाग्राम जैसी गुणवत्ता विकसित न हो सकेगी. इस पर जरूर विचार करना चाहिए, क्योंकि यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी परियोजना और गैर-सरकारी परियोजनाओं में काफी अंतर होता है.
किसी भी सरकारी उपक्रम में तरह-तरह के बंधन होते हैं. मगर जो गैर-सरकारी उपक्रम होते हैं, वहां एक तरह से स्वतंत्रता रहती है. कह सकते हैं कि वहां अपना लोकतंत्र होता है.
गांधीजी अपने दौर में जब आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, तब वे जहां कहीं भी जाते थे तो प्रयास करते थे कि वहां अपना एक आश्रम बनाएं. वहां के लोग स्वावलंबी जीवन कैसे विकसित करें, इसकी सीख देते थे.
उन्होंने 1915 में साबरमती आश्रम और वर्धा में 1936 में सेवाग्राम बनाया. ये दोनों आज भी एक प्रयोगशाला के रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं. यहां हर कोई अपना काम खुद करता था.
भोजन बनाने के बाद हर कोई अपने बर्तन को साफ करता था. अपने कपड़े खुद धोता था. वहां चारों तरफ हरियाली विकसित करने का उपक्रम होता था. गांधीजी नियमित रूप से बैठते, प्रार्थना सभाएं होतीं और देश की आजादी के लिए और क्या बेहतर उपाय हो सकते हैं, इसकी सामूहिक चिंता होती.
आज साबरमती आश्रम पर सरकार की नजर है. सरकार उसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना चाहती है, जैसा जलियांवाला बाग को कर रही है. ये दोनों स्थल अपने-अपने स्तर पर भारतीय समाज को प्रेरणा देने का ही काम करेंगे.
जलियांवाला बाग को देखकर आज भी आंखों में आंसू आ जाते हैं. उस क्रूर समय को हम याद करते हैं जब निर्देश लोगों पर गोरी हुकूमत ने गोलियां दागी थीं. लेकिन सेवाग्राम अलग किस्म का स्मारक है, जहां हम जाते हैं तो गांधीजी की जीवन-शैली को समझने में सहायता मिलती है.
गांधी स्वावलंबन की पाठशाला थे. उनका एक-एक कदम बेहतर प्रयोग हुआ करता था. यही कारण है कि विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में उनका स्थान है. गांधी अपने समय से काफी आगे के व्यक्तित्व थे.
उनका तमाम चिंतन आज भी एकदम नया लगता है. आज अगर गांधी जिंदा होते तो साबरमती या सेवाग्राम को विकसित करने के लिए सरकार से फूटी कौड़ी नहीं लेते. वे जन सहयोग से काम करने के पक्षधर थे.
गांधी ईमानदारी के साथ काम करते थे इसलिए उनको सहयोग करने वाले भी तन-मन-धन से सहयोग करते थे. आज जब मैं सुनता हूं कि सरकार करोड़ों रुपए खर्च करके साबरमती आश्रम को एक पर्यटन स्थल में तब्दील करने की कोशिश कर रही है, तब हंसी आती है कि हमारी बुद्धि ने गांधी को एक पर्यटन स्थल में तब्दील कर दिया है जबकि गांधी पर्यटन की चीज नहीं, आत्मा में स्थापित करने वाली दृष्टि है. लेकिन अब कोई गांधी तो बन नहीं सकता इसलिए गांधी के स्मारकों को सुव्यवस्थित करके खुद को गांधीवादी साबित करने में क्या हर्ज है.
छत्तीसगढ़ के नया रायपुर क्षेत्र में प्रदेश सरकार वर्धा की तर्ज पर पचहत्तर एकड़ में सेवाग्राम विकसित कर रही है. यह अच्छा प्रयास है. तय है कि वर्धा की नकल करके सेवाग्राम तो बन जाएगा मगर वह वाइब्रेशन, तरंग-स्पंदन हम कैसे ला पाएंगे, जो सेवाग्राम में आज भी महसूस होती है. जब सरकार किसी परियोजना को अपने हाथ में लेती है तो वह विशुद्ध रूप से सरकारी हो जाती है.
गैरसरकारी नहीं रहती क्योंकि सरकार के अनेक तरह के नियम-कायदे आड़े आ जाते हैं. आर्थिक अनुदान की स्थिति जब बनती है, तो वहां कमीशनखोरी का खेल भी होने लगता है. इसलिए सेवाग्राम जैसी परियोजना के संदर्भ में गांधीवादियों का आग्रह यही है कि इसे सरकारी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए.
व्यक्तिगत प्रयासों से ही गांधी के कार्य को करना न्यायसंगत होगा. नया रायपुर के सेवाग्राम को एक ट्रस्ट के माध्यम से ही संचालित करना चाहिए. ट्रस्ट की जरूरतों के अनुरूप सरकार उसकी आर्थिक सहायता करती रहे लेकिन उस पर नियंत्रण ट्रस्ट का ही रहे. इस ट्रस्ट में गांधी वादी चिंतकों को शामिल करना चाहिए और ऐसे लोगों को जिनकी साफ-सुथरी छवि हो. जो विशुद्ध रूप से गांधीवाद को जीते हों.