भारतीय लोकतंत्र में एक बात तय है कि किसी एक चुनाव को जीतने के लिए तैयार किया गया फार्मूला दूसरी बार नहीं चलता है। महाराष्ट्र में विपक्षी गठबंधन महाविकास आघाड़ी पिछले कुछ माह से चुनाव जीतने की तरकीब ढूंढ़ने की जुगत में है। लोकसभा चुनाव परिणामों में अप्रत्याशित सफलता मिलने के बाद आघाड़ी में शामिल हर दल की महत्वाकांक्षा बढ़ गई है और वह राज्य की सत्ता का नेतृत्व करना चाहता है। एक तरफ जहां शिवसेना का उद्धव गुट अपना भगवा चेहरा छोड़ उदारवादी बनकर गठबंधन में साथ है, तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) को लगता है कि वे दोनों दल ही आघाड़ी में तालमेल के आधार हैं और उनके मतों के चलते बीते आम चुनावों में सफलता मिली है।
तीनों में राकांपा नेता शरद पवार को अपने अनुभव से मालूम है कि सत्ता की बागडोर सहानुभूति से नहीं, बल्कि संख्या बल से मिलती है। इसलिए वह कोई बड़ी बात कहने से बच रहे हैं, लेकिन बाकी दोनों दलों को यह चुनाव एक स्वर्णिम अवसर प्रतीत हो रहा है। हालांकि नए उम्मीदवारों से लेकर आपसी मतविभाजन कितना होगा, इसका अंदाजा किसी को नहीं है।
ढाई साल तक राज्य की सत्ता को संभालने के बाद जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की सरकार गिराकर एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आघाड़ी के किसी दूसरे नेता पर सीधा प्रहार नहीं किया। वे हर मंच से ठाकरे पर हमला बोलते आए। उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में शिवसेना प्रमुख के कार्यकाल की लगातार आलोचना की। साथ ही साथ खुद को शिवसेना पार्टी का पूर्व सदस्य बताकर मुख्यमंत्री के रूप में अपने कामकाज को पूरी तरह से बदल कर दिखाया। जब ठाकरे की मुख्यमंत्री के रूप में कार्य पद्धति पर हमले हुए तो शिवसेना ने पीछे न हटते हुए आगे बढ़कर जवाबी हमले किए। उन्होंने ठाकरे को ढाई साल का एक अच्छा मुख्यमंत्री बताया और इसी विचार को आगे ले जाने की कोशिश की, जिसमें उन्होंने ठाकरे को आघाड़ी के मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने की भरपूर कोशिश की। प्रयास यहां तक भी हुए कि स्वयं उद्धव ठाकरे अपने बेटे आदित्य ठाकरे और प्रवक्ता संजय राऊत के साथ तीन दिन तक दिल्ली में डेरा जमाए बैठे रहे। मगर कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी (आप) तक ने उन्हें किसी प्रकार का समर्थन नहीं दिया। उनकी आखिरी उम्मीद राकांपा नेता शरद पवार थे, जिन्होंने राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर मामले को चुनाव के बाद की चर्चा के लिए छोड़ दिया।
इसके साथ उन्होंने अपनी पार्टी का पक्ष साफ कर गेंद कांग्रेस के पाले में छोड़ दी, जिसके प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले 288 सीटों पर चुनाव लड़ने की इच्छा बता कर सत्ता अपने पास रखने का संकेत दे रहे थे। किंतु उन्हें भी दिल्ली से आलाकमान ने झटका देकर सीधा किया और सारा मामला चुनाव परिणामों के बाद के विचार के लिए रख दिया। गठबंधन के दोनों दलों की स्थितियां साफ हो जाने के बाद शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट खासी दुविधा में फंस गया। उसकी परंपरा एक चेहरे पर चुनाव लड़ना है, जो पार्टी प्रमुख का होता है। अब यह चुनाव चेहरा विहीन हो चला है।
दरअसल शिवसेना टूटने के बाद ज्यादातर विधायक शिंदे गुट के साथ हैं। आम तौर पर वही पार्टी की पहचान और दबदबा कायम रखते थे। पार्टी में टूट के बाद उद्धव गुट के पास मात्र 15 विधायक माने गए। इस परिस्थिति में अनेक नए चेहरों को अवसर देना पार्टी की मजबूरी है। बीते सालों में शिवसेना किसी भी नए उम्मीदवार को बालासाहब ठाकरे के नाम पर चुनाव जिता लेती थी, किंतु टूट-फूट के बाद अब पुरानी स्थितियां नहीं रह गई हैं। यदि उद्धव ठाकरे के नाम पर चुनाव लड़ा जाता तो नए उम्मीदवारों को लाभ मिल सकता था। किंतु वर्तमान में केवल महाविकास आघाड़ी के नाम पर चुनाव जीत पाना आसान नहीं है। लोकसभा चुनाव में संविधान बदलने, आरक्षण खत्म करने, धर्मनिरपेक्ष मतों को एकजुट करने, मराठा आरक्षण आंदोलन के नाम पर एक सरकार विरोधी फार्मूला तैयार हो गया था, जिससे सफलता मिल गई। किंतु विधानसभा चुनाव में इन्हें दोहरा कर जीत हासिल करना आसान प्रतीत नहीं हो रहा है।
सत्ताधारी महागठबंधन ने भी पराजय से सबक लेकर अनेक सरकारी योजनाओं और मतों के ध्रुवीकरण जैसे उपाय किए हैं, जिनसे विपक्ष का पिछली बार की तरह मुकाबला करना सरल नहीं है। इस परिस्थिति में आखिरी तीर सहानुभूति का रह जाता है, जो चल गया तो बहुत दूर तक जाता है। आघाड़ी में उद्धव ठाकरे और शरद पवार दोनों ही नेता सहजता से लोगों की सद्भावना पाने के लिए तैयार हैं। किंतु लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा का मतदाता क्षेत्र व्यापक न होकर छोटे-छोटे इलाकों में बिखरा हुआ होता है। वहां पर समय, परिस्थिति, आवश्यकता और व्यक्ति के साथ राजनीतिक समीकरण बदल जाते हैं।
ऐसे में उम्मीदवारों का चयन और उनकी अपने क्षेत्र पर पकड़ महत्वपूर्ण साबित होती है. लोकसभा चुनाव में शिवसेना (उद्धव गुट) और राकांपा (शरद पवार गुट) के लिए स्थापित प्रत्याशियों के साथ सफलता पाना सरल था। किंतु विधानसभा की 288 सीटों पर नए-नए उम्मीदवारों पर दांव खेलना खतरे से खाली नहीं है। वैसे भी काल-परिस्थिति देख अनेक छुटभैये नेता भी अपना भाग्य आजमाने के लिए तैयार बैठे हैं।
महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में राजनीति आरोप-प्रत्यारोप, टूट-फूट, प्रलोभन-लालच के बीच ही बंध कर रह गई है। समस्याओं से सरोकार का केवल दिखावा है। घाव के इलाज की बजाय पट्टी बांधकर छिपाने में बेहतरी समझी जा रही है। इसी कारण जातिगत द्वेष, धार्मिक सद्भाव का ह्रास, आर्थिक विषमता और लैंगिक भेदभाव अपनी गहरी जगह बना रहे हैं। विपक्ष को सहानुभूति का सहारा चाहिए और सत्ता पक्ष के पास दिलेरी का आसरा है। किंतु मुद्दों पर आधारित राजनीति से हर कोई बचना चाहता है। इसलिए कभी चेहरे, तो कभी ख्याली किस्सों से मतदाता को भ्रमित करने के प्रयास जारी हैं। किंतु सूचना क्रांति के युग में सही-गलत और गलत-सही दोनों ही प्रकार के संदर्भ हर आदमी के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए कुछ चुनावी फार्मूलों के जवाब मतदाता के पास भी हो सकते हैं, जो विधानसभा चुनाव के नतीजे खुलकर बताएंगे।