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santosh deshmukh murder case: बीड के राजनीतिक सवालों को चाहिए जवाब

By Amitabh Shrivastava | Updated: February 8, 2025 08:04 IST

santosh deshmukh murder case: राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(अजित पवार गुट) और भाजपा सत्तासीन होकर सिर्फ पुलिस की कार्रवाई के बाद मूकदर्शक बने नहीं रह सकते हैं.

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ठळक मुद्देयह कहकर बचना फिलहाल आसान नहीं है. वैसे-वैसे आंच राजनीति के आंगन तक पहुंचने लगी.सालुंके परिवार और मुंडे परिवार का अपने-अपने क्षेत्र में दबदबा है.

महाराष्ट्र मराठवाड़ाः महाराष्ट्र के मराठवाड़ा परिक्षेत्र में स्थित बीड़ जिले की केज तहसील में विगत नौ दिसंबर 2024 को हुई मस्साजोग के सरपंच संतोष देशमुख की हत्या के बाद केवल विपक्ष ही नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अपने ही दल के विधायक सुरेश धस के आरोपों को लगातार सुनना पड़ रहा है. यदि राजनीति से अपराध तक के आरोप किसी व्यक्ति विशेष पर केंद्रित हैं तो उससे वर्तमान में केवल इसलिए नहीं बचा जा सकता है क्योंकि उसका राजनीतिक दल अब बदल चुका है. वहीं वीभत्स रूप में की गई हत्या केवल घटना मात्र नहीं है, इसके बहाने जिले के राजनीतिक चरित्र को उजागर करने की कोशिश हुई है और उसके कर्ता-धर्ताओं के नाम खुलकर सामने लाए जा रहे हैं. ताजा मामला जांच के अधीन है और उसके बाद सही-गलत का फैसला अदालत में होगा, यह कहकर बचना फिलहाल आसान नहीं है. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(अजित पवार गुट) और भाजपा सत्तासीन होकर सिर्फ पुलिस की कार्रवाई के बाद मूकदर्शक बने नहीं रह सकते हैं.

 

इसी कारण राज्य की बहुचर्चित घटना के दो माह बाद मुख्यमंत्री और राज्य के गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस के बीड जिले के दौरे के दौरान उठी अनेक बातें कई सवालों को जन्म दे जाती हैं. सर्वविदित है कि बीड के सरपंच हत्याकांड की जैसे- जैसे परतें खुलीं, वैसे-वैसे आंच राजनीति के आंगन तक पहुंचने लगी. जिस प्रकार आरोपियों के नाम सामने आए, उनकी जान-पहचान उजागर होने लगी. धीरे-धीरे मामला नेताओं के गलियारे में पहुंच कर सुलगने लगा. स्पष्ट है कि बीड़ जिले में परिवार राजनीति की परंपरा बहुत पुरानी है. क्षीरसागर परिवार, पंडित परिवार, सालुंके परिवार और मुंडे परिवार का अपने-अपने क्षेत्र में दबदबा है.

इसे आम तौर पर हर मोड़ पर देखा ही जाता है, लेकिन हर प्रकार के चुनावों के समय जीत-हार इन परिवारों की प्रतिष्ठा का मुद्दा बन जाती है. साफ है कि ये सभी सफेदपोश केवल अपने परिवारों तक बंधे नहीं हैं. इनको मानने वालों और पीछे चलने वालों की संख्या बहुत है. जिसका असर जिले में हुई किसी घटना-दुर्घटना के बाद देखा जा सकता है.

यही कारण है कि महाराष्ट्र के किसी भी राजनीतिक दल को जिले में अपना विस्तार इन परिवारों के सहारे ही दिखाई देता है. भाजपा का विस्तार हो या फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस का प्रभाव, इस जिले में कुछ परिवारों के सहारे ही बढ़ा है. स्वाभाविक है कि जब राजनीतिक वरदहस्त के अलावा सत्ता का सहारा मिलने लगेगा तो क्षेत्रीय नेताओं के साथ उनके समर्थकों के उत्साह में बढ़ोत्तरी होगी ही.

यह स्थिति तब तक ही स्वस्थ बनी रह सकती है, जब तक राजनेता इस पर अपना नियंत्रण बनाए रखें और अपने हितों के लिए दूसरे का अहित न सोचें. किंतु पिछले सालों में बीड़ की राजनीति में अनेक रंग बदले. जीत-हार का रास्ता सीधा ही नहीं, बल्कि टेढ़ा भी निकाला जाने लगा. जिसके परिणाम सामने आना आरंभ हो चुके हैं.

अब मस्साजोग की घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप चाहे कोई भी करे, लेकिन ऐसी नौबत आने का बना रास्ता कैसे मिट पाएगा. ताजा मामले में महाराष्ट्र के मंत्री धनंजय मुंडे निशाने पर हैं. कुछ सालों के मनमुटाव के बाद चूंकि उनकी चचेरी बहन पंकजा मुंडे भी उनके साथ एक मंच पर हैं, इसलिए वह भी परिवार की सदस्य के नाते कोपभाजन का शिकार हैं.

दोनों भाई-बहन अपने-अपने पिता पंडित अण्णा मुंडे और गोपीनाथ मुंडे की विरासत लेकर राजनीति में आए. धनंजय मुंडे के पिता ने अपने आप को जिले तक सीमित रखा और पंकजा मुंडे के पिता राज्य से राष्ट्रीय राजनीति तक पहुंचे. पहले पूरा मुंडे परिवार भाजपा के साथ रहा, लेकिन पंकजा मुंडे की राजनीति में सक्रियता बढ़ने के बाद से धनंजय मुंडे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) से जुड़ गए. यहां तक कि बाद में उनके पिता भी अपने भाई से मतभेदों के चलते राकांपा में शामिल हुए. इस दौर में पारिवारिक प्रतिद्वंद्विता भी बढ़ी और सामाजिक वैमनस्य भी पैदा हुआ.

धनंजय जिस पार्टी में गए उसे आम तौर पर एक जाति विशेष से जोड़ कर ही देखा जाता है. लिहाजा उन्हें जातिगत विभाजन में कभी सीधे निशाने पर नहीं लिया गया. अब राकांपा के विभाजन के बाद उन्हें घेरने का बड़ा अवसर मिल गया. इन्हीं हालात में जातिगत वर्चस्व के प्रयास आरंभ हो चुके हैं. जिले में मराठा, वंजारी और अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) के बीच निर्णायक दौर का मुकाबला मान लड़ाई लड़ी जा रही है.

बीड़ के राजनीतिक संघर्ष में महाराष्ट्र की नई-नवेली राज्य सरकार फंसी हुई है. उसमें आरोपी-प्रत्यारोपी दोनों हैं. पिछले दो माह में यह साबित हो चुका है कि आरोप लगाने वाले पूरी तरह से मुंडे परिवार पर हावी हैं, क्योंकि उनके साथ सरपंच हत्याकांड की आम सहानुभूति है. वहीं सरकार की ओर से कितनी भी सफाई और जांच कराई जाए, सत्ता पक्ष के लिए हर सवाल का जवाब देना आसान नहीं है.

मामला धनंजय मुंडे से लेकर मुंडे परिवार पर केंद्रित है, इसलिए इसे व्यक्तिगत प्रकरण की शक्ल भी दी जा रही है. किंतु सत्ता पर आसीन होने के बाद जिम्मेदारी अपेक्षा से अधिक बढ़ जाती है. इसलिए सरकार पर दबाव बढ़ना सामान्य है. समूचे मामले में मुंडे परिवार की राजनीतिक दबंगई से लेकर सत्ता के उपयोग पर सवाल खड़े होना सहज है.

बार-बार जांच प्रक्रिया में परिवर्तन से लेकर पुलिस अधीक्षक का बदलना कहीं न कहीं सरकार पर उठती उंगलियों को जवाब है. फिर भी ये कुछ कम ही हैं. जिस प्रकार आष्टी के विधायक सुरेश धस अकेले ही अपनी ही सरकार के मंत्री पर तीखे हमले कर रहे हैं, सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि दमनिया आरोपों का पुलिंदा लेकर घूम रही हैं, मुंडे की पत्नी करुणा शर्मा अदालत में मुकदमा जीत रही हैं.

 राज्य सरकार को लगातार सामने आ रही चिंताओं को दूर करना होगा. यह केवल एक-दो इस्तीफों के सहारे नहीं होगा. इसे एक पारदर्शी और सर्वमान्य तार्किक प्रक्रिया से लोगों को संतुष्ट करना होगा. तभी सवालों की फेहरिस्त कम होगी और जवाबों पर कहीं कोई संतुष्टि जन्म लेगी. न्याय की आड़ में बीड़ में राजनीति  की रोटियां सेंकने वाले बेनकाब होंगे.

टॅग्स :धनंजय मुंडेअजित पवारदेवेंद्र फड़नवीस
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