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Maharashtra Assembly Elections 2024: अधर में अटकते जा रहे अजित पवार

By Amitabh Shrivastava | Updated: July 13, 2024 06:25 IST

Maharashtra Assembly Elections 2024: राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे पार्टी के दूसरे नेता प्रफुल्ल पटेल को उस समय झटका लगा, जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपेक्षा अनुरूप स्थान नहीं दिया गया.

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ठळक मुद्देआखिरकार पराजित उम्मीदवार सुनेत्रा पवार को राज्यसभा भेजना पड़ा.38 विधायकों के सहारे विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी है.अस्सी से नब्बे सीटों पर चुनाव लड़कर पचास से साठ जीतना है.

Maharashtra Assembly Elections 2024: राजनीति की पारिवारिक पृष्ठभूमि और निजी महत्वाकांक्षा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के टूटे गुट के नेता अजित पवार को किसी एक लक्ष्य पर केंद्रित होने का अवसर नहीं दे पा रहे हैं. लिहाजा राज्य सरकार में शामिल होने से लेकर लोकसभा चुनाव तक चिंताएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. लोकसभा चुनाव में पांच स्थानों पर चुनाव लड़ने का अवसर मिला, जिसमें से एक सीट पर जीत मिली और बारामती जैसी प्रतिष्ठित सीट पर हार मिली. आखिरकार पराजित उम्मीदवार सुनेत्रा पवार को राज्यसभा भेजना पड़ा.

मगर राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे पार्टी के दूसरे नेता प्रफुल्ल पटेल को उस समय झटका लगा, जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपेक्षा अनुरूप स्थान नहीं दिया गया. अब 38 विधायकों के सहारे विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारी है और अस्सी से नब्बे सीटों पर चुनाव लड़कर पचास से साठ जीतना है. वह भी उस समय जब पार्टी के विधायकों की निष्ठा पर हमेशा ही सवाल उठ रहे हों.

साथ ही राकांपा में शरद पवार जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता को चुनौती देने की कोई हिम्मत दिखा रहा हो.राज्य की राजनीति में हमेशा ही महत्वाकांक्षी माने जाने वाले अजित पवार ने कभी किसी मुकाम पर ‘संतोष’ जैसा शब्द अपने शब्दकोश में नहीं रखा. यही वजह रही कि उन्होंने अपनी मंजिलों को लगातार हासिल किया.

किंतु उनका राजनीतिक उनवान हमेशा उनके चाचा शरद पवार के नाम पर आया. उनकी प्रगति चाचा ने लिखी और उनकी सीमाएं भी चाचा ने तय कीं. चाचा ने हर सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री से लेकर उपमुख्यमंत्री तक का पद दिलवाया. इस पर भी भतीजे ने एक सुबह भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के साथ मिलकर सरकार बना ली.

हालांकि सरकार अधिक दिन नहीं चली. बावजूद इसके जब दूसरी बार शिवसेना के साथ सरकार का गठन हुआ तो उसमें भी उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद मिला. इससे पहले भी जब वर्ष 2014 में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनी, तब भी उन्हें विपक्ष का नेता बनाया गया था. किंतु वर्ष 2019 में बनी ठाकरे सरकार के वर्ष 2022 में गिरने के बाद अजित पवार ने अपनी महत्वाकांक्षा को शिंदे सरकार में शामिल हो कर पूरा किया. इस कोशिश में उन्होंने अपने चाचा की पार्टी को तोड़कर 38 विधायकों को अपने पक्ष में किया.

अब भविष्य की चुनौती विधानसभा चुनाव है, जिसमें विधायकों की संख्या बढ़ने पर ही कोई भी गठबंधन महत्व देगा. दरअसल अजित पवार ने चाचा शरद पवार के साथ रहते हुए हमेशा दूसरे स्थान पर ही खुद को पाया. इसीलिए जब मई 2023 में उनके समक्ष एक मौका शरद पवार के इस्तीफे के रूप में आया तो तुरंत उन्होंने अग्रिम मोर्चे पर कमान संभालते हुए खुद को खड़ा किया.

मगर वह दांव बेकार गया. पार्टी शरद पवार के नेतृत्व में ही खड़ी रही. उसके बाद उन्होंने सबसे बड़ा जोखिम भरा कदम एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में बनी महागठबंधन सरकार में शामिल होने का उठाया. इससे राकांपा में बड़ी फूट हुई. बड़ी संख्या में विधायक और सांसद उनके साथ आ गए. किंतु इसका अधिक असर राकांपा के मूल भाग, जो आस्था के साथ शरद पवार के साथ था, पर नहीं पड़ा.

इसके विपरीत सहानुभूति चाचा पवार के साथ अधिक बन गई, जिसका प्रमाण लोकसभा चुनाव ने दे दिया. शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा दस सीटों पर चुनाव लड़कर आठ सीटें जीत ले गई, जबकि अजित पवार की राकांपा पांच सीटों पर चुनाव लड़कर केवल एक ही सीट पा सकी. उसे 3.6  प्रतिशत मत मिले.

यहीं से शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा ने अजित पवार की राकांपा को सीधे तौर पर चुनौती देना आरंभ किया. शरद पवार के पोते रोहित पवार ने अनेक अवसरों पर अजित पवार की पार्टी पर सवाल खड़े किए. अनेक विधायकों की वापसी की बात कही, जिसकी पुष्टि शरद पवार ने इस रूप में की कि विधायक उनकी बजाय पार्टी अध्यक्ष जयंत पाटिल के संपर्क में हैं.

इसी बीच, राकांपा अजित पवार गुट के प्रमुख नेता छगन भुजबल के पार्टी छोड़ने की हवा उड़ी. हालांकि स्वयं भुजबल ने खबरों का खंडन किया. मगर मराठा आरक्षण आंदोलन के नेताओं पर टिप्पणी कर भुजबल ने पार्टी के लिए नया खतरा मोल ले लिया. इससे पार्टी में अंदरूनी बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है. केंद्र सरकार में एक भी मंत्री पद नहीं मिलना पहले ही चिंता का बड़ा कारण है.

उसके समाधान के लिए भाजपा दलीय क्षमता के पैमाने से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है. अब विधान परिषद चुनाव की जीत के बाद अजित पवार को विधानसभा चुनाव का सामना करना है. वह भी तब जब एक साल में सफलता कम और असफलता अधिक हाथ लगने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं तक का मनोबल बढ़ाए रखना है.

जिस तरह शिवसेना शिंदे गुट के अनेक नेता शिवसेना ठाकरे गुट पर तीखे हमले करते हैं, उस तरह राकांपा अजित पवार गुट का कोई भी नेता राकांपा शरद पवार गुट पर हमले करता भी नहीं दिखाई देता है. दूसरी तरफ राकांपा शरद पवार गुट की सांसद सुप्रिया सुले हों या विधायक रोहित पवार, दोनों राकांपा अजित पवार गुट पर हमले करते ही रहते हैं.

भाजपा के हलकों में अजित पवार को लेकर चर्चाएं चलती ही रहती हैं. पिछले दिनों एक बैठक में विधायक नवाब मलिक के शामिल होने पर विवाद उठ गया था. इस स्थिति में अजित पवार का राज्य सरकार में अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखना, विधानसभा चुनाव तक अपने विधायकों को एकजुट रखना और भाजपा के साथ मोलभाव करने की स्थिति में रहना गंभीर चुनौती है.

यदि इनसे मुकाबला सहजता से निपट नहीं पाया तो मुश्किलें बढ़ेंगी, क्योंकि आगे स्थितियां अधर में अटकती जाएंगी. फिलहाल तो दबाव बनाने की स्थिति भी नहीं है. लिहाजा अपनी सीमाओं में चलते रहना वक्त की जरूरत है. अब चाचा का साथ नहीं, बल्कि चाचा के साथ मुकाबला है.

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