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अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः अपनी खूबियों पर भरोसा करना होगा विपक्ष को!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: October 16, 2019 13:09 IST

विपक्ष क्या कर रहा है? वह कहां है? दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है, लेकिन उसकी शक्तियां निराश हैं, उनके भीतर बिखराव है, रणनीति का अभाव है और समाज के विभिन्न तबकों से उसके संबंध कमजोर हो चुके हैं.

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ठळक मुद्देआजादी के बाद जब कांग्रेस अपने सभी चुनाव आसानी से और जबरदस्त बहुमत से जीत लेती थी, विपक्ष बहुत कमजोर था. सांगठनिक दृष्टि से विपक्ष के पास अखिल भारतीय संरचनाएं नहीं थीं. कांग्रेस और उसके नेतृत्व की साख राष्ट्रीय स्तर पर इतनी ऊंची थी कि जनता विपक्ष की दावेदारियों को सुनती तो थी, पर न उन पर ध्यान देती थी.

अभय कुमार दुबेआजादी के बाद जब कांग्रेस अपने सभी चुनाव आसानी से और जबरदस्त बहुमत से जीत लेती थी, विपक्ष बहुत कमजोर था. सांगठनिक दृष्टि से विपक्ष के पास अखिल भारतीय संरचनाएं नहीं थीं. कांग्रेस और उसके नेतृत्व की साख राष्ट्रीय स्तर पर इतनी ऊंची थी कि जनता विपक्ष की दावेदारियों को सुनती तो थी, पर न उन पर ध्यान देती थी और न ही विपक्ष को किसी भी तरह से कांग्रेस का विकल्प मानने के लिए तैयार थी.

लेकिन इस स्थिति के बावजूद आम जनता और सार्वजनिक जीवन के सोचने-समझने वाले लोग अपने कांग्रेसी रुझानों के साथ-साथ विपक्षी राजनीतिक संरचनाओं के प्रति सम्मान का भाव रखते थे. बार-बार हारने के बाद भी विपक्षी नेताओं का मनोबल गिरता नहीं था. उन्हें लगता था कि वे एक ऐसे नैतिक पायदान पर खड़े हुए हैं जहां उनकी और सत्तारूढ़ कांग्रेस की हैसियत तकरीबन एक जैसी ही है.  

मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति कमोबेश 1984 तक कायम रही. उस चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत और संसद में विपक्ष की अत्यंत मामूली संख्या होने के बावजूद विपक्षी राजनीति की नैतिक चमक फीकी नहीं पड़ी थी. आज यह स्थिति बदल चुकी है. नरेंद्र मोदी की दूसरी जीत मात्र में राजीव गांधी की जीत के मुकाबले छोटी है, लेकिन मोदी के खिलाफ खड़े हुए विपक्ष के पास न रणनीति है, न मनोबल है और न ही उसका भविष्य संभावनापूर्ण लग रहा है. सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि सार्वजनिक जीवन में विपक्ष की साख भी गिर गई है. जनता उसे भारतीय जनता पार्टी के साथ प्रतियोगिता करने वाली ताकत के रूप में देखने को तैयार नहीं है.  

मैं चाहता हूं कि मेरा यह अवलोकन ठीक न निकले. महाराष्ट्र और  हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजे दिखा दें कि मैं गलत सोच रहा था, और विपक्ष में अभी काफी दम बाकी है. लेकिन क्या ऐसा होगा? 2014 में इन दोनों राज्यों में जब चुनाव हुए थे, उस समय न तो देवेंद्र फडणवीस की महाराष्ट्र की राजनीति में कोई बहुत बड़ी हैसियत थी, और न ही हरियाणा की जाट-प्रधान राजनीति में मनोहर लाल खट्टर की कोई उल्लेखनीय भूमिका थी. भाजपा ने दोनों चुनाव मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बिना लड़े थे. जीतने के बाद मोदी ने दोनों राज्यों की राजनीति की स्थापित धारा के विपरीत जाते हुए इन दोनों को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना. मुद्दतों बाद महाराष्ट्र को गैर-मराठा और हरियाणा को गैर-जाट मुख्यमंत्री मिला.  

दोनों मुख्यमंत्रियों की डगर मुश्किल थी. फडणवीस को एक तरफ मराठा आंदोलन का सामना करना पड़ा और दूसरी तरफ पिछड़ी जातियों की मांगों का. मराठों की राजनीतिक नुमाइंदगी का दम भरने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और स्वयं सरकार में भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने फडणवीस के लिए एक के बाद कठिनाइयां दरपेश कीं. खट्टर के लिए तो मुश्किलों की बाढ़ आ गई. जाटों ने भीषण कोहराम मचाया और दो-दो बाबाओं के साम्राज्य की कानून से टक्कर हो गई. इन सभी घटनाओं ने खट्टर की प्रशासनिक क्षमताओं पर जबर्दस्त सवालिया निशान लगा दिया. हरियाणा के जाटों की भाजपा से नाराजगी तो इतनी जबर्दस्त थी कि 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावों में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी प्रचार करने के लिए मैदान में कूद पड़े.  

कठिनाइयों से भरे इन पांच सालों के बाद आज स्थिति क्या है? इस बार चुनाव स्पष्ट रूप से फडणवीस और खट्टर के नेतृत्व में हो रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों ने दिखाया कि शुरुआती विरोध के बाद हरियाणा के जाट समाज ने खासी संख्या में भाजपा को वोट दिए. कहने का मतलब यह नहीं है कि विधानसभा में भी ऐसा ही होगा, लेकिन इससे एक तात्पर्य तो यह निकाला ही जा सकता है कि जाट समाज में भाजपा के प्रति अब वैसा विरोध नहीं रहा. उधर महाराष्ट्र में फडणवीस ने भी न केवल शिवसेना के साथ गठजोड़ जारी रखने में कामयाबी हासिल की, बल्कि मराठा और ओबीसी समुदायों की भी एक हद तक हमदर्दी जीतने में सफलता हासिल की है.  विपक्ष क्या कर रहा है? वह कहां है? दोनों राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है, लेकिन उसकी शक्तियां निराश हैं, उनके भीतर बिखराव है, रणनीति का अभाव है और समाज के विभिन्न तबकों से उसके संबंध कमजोर हो चुके हैं. हरियाणा में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से हुड्डा परिवार के हाथ में चली गई है. नतीजतन उसकी राजनीति हुड्डा बनाम अन्य हो चुकी है. महाराष्ट्र में भी कांग्रेस फूट और अनिश्चितता की शिकार है. कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से दिशाहीन और संकल्पहीन है. पहली नजर में देखने से ऐसा लगता है कि कांग्रेस एक बड़ी पराजय के अंदेशे का सामना कर रही है.  

विधानसभा चुनाव बहुत नजदीक हैं. विपक्ष के पास अपने हालात सुधारने का कोई मौका नहीं है.  लेकिन, इन चुनावों के तुरंत बाद उसे बिना देर किए इस काम में लग जाना पड़ेगा. संघ, भाजपा और मोदी की तिकड़ी ने दिखाया है कि वे रास्ता बदलने में माहिर हैं, और अपनी गलतियां  सुधारने का बहुत बड़ा माद्दा उनके पास है. इसलिए विपक्ष को उनकी खामियों पर नहीं बल्कि अपनी खूबियों पर भरोसा करना होगा.

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