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महाराष्ट्र के बाद बिहार में एकतरफा हार?, लगातार हारते और बिखरते विपक्ष को अब एसआईआर का सहारा

By राजकुमार सिंह | Updated: November 29, 2025 05:53 IST

पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में सरकारें भी एसआईआर का विरोध कर रही हैं. चार नवंबर से शुरू यह प्रक्रिया चार दिसंबर तक पूरी होनी है.

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ठळक मुद्देचार नवंबर से शुरू यह प्रक्रिया चार दिसंबर तक पूरी होनी है.विपक्ष सड़कों पर है और अदालत भी पहुंच गया है. राज्य सरकारों से भी चर्चा नहीं की.

महाराष्ट्र के बाद बिहार में भी एकतरफा हार से पस्त विपक्ष की एकता में उभरती दरारों को भरने में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण (एसआईआर) मददगार साबित हो सकता है. एसआईआर पर विवाद बिहार से ही शुरू हो गया था. मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, जहां सुनवाई बिहार में विधानसभा चुनाव संपन्न हो जाने के बाद भी जारी है. इसी बीच 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एसआईआर प्रक्रिया से विपक्ष को एकजुटता और आक्रामकता के लिए बड़ा मुद्दा मिल गया है. चार नवंबर से शुरू यह प्रक्रिया चार दिसंबर तक पूरी होनी है.

इस बीच विपक्ष सड़कों पर है और अदालत भी पहुंच गया है. पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में सरकारें भी एसआईआर का विरोध कर रही हैं. स्पष्ट है कि एसआईआर का फैसला करने से पहले चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से तो दूर, संबंधित राज्य सरकारों से भी चर्चा नहीं की.

आयोग तर्क दे सकता है कि वह संवैधानिक संस्था है तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के लिए उसे एसआईआर समेत हर जरूरी कदम उठाने का अधिकार है. तर्क गलत भी नहीं, पर इस व्यावहारिकता को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि एसआईआर समेत पूरी चुनाव प्रक्रिया को संपन्न करवाने में राज्य सरकार के कर्मचारियों की अहम भूमिका रहती है,

क्योंकि चुनाव आयोग के पास अपना ज्यादा स्टाफ नहीं होता. जिस राज्य सरकार के कर्मचारियों से चुनाव आयोग को काम लेना है, उसी से उस बाबत चर्चा तक न करना सकारात्मक तस्वीर पेश नहीं करता. आदर्श स्थिति का तो तकाजा है कि चुनाव प्रक्रिया संबंधी फैसलों में सभी राजनीतिक दलों से भी चर्चा की जानी चाहिए, क्योंकि वे उसका बेहद महत्वपूर्ण अंग होते हैं.

बेशक बिहार का जनादेश बताता है कि एसआईआर और वोट चोरी संबंधी आरोप चुनावी मुद्दा नहीं बन पाये, लेकिन विपक्षी एकता में उजागर होती दरारों को भरने में मददगार साबित होते दिख रहे हैं. पश्चिम बंगाल में अगले साल मार्च-अप्रैल में विधानसभा चुनाव हैं. भाजपा और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच कटुता किसी से छिपी नहीं है.

ममता की तृणमूल कांग्रेस द्वारा भाव न दिए जाने के चलते वहां कांग्रेस, वाम दलों के साथ है. पश्चिम बंगाल में वे तृणमूल के साथ मंच शायद न भी साझा करें, पर एसआईआर का विरोध तो सड़क से संसद तक कर ही रहे हैं. केरल में तो वाम दल सत्ता में हैं और कांग्रेस विपक्ष में, पर एसआईआर के विरोध में दोनों हैं.

तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन सरकार और उनकी पार्टी द्रमुक भी एसआईआर के विरोध में है तो राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी फिल्म स्टार विजय का दल तमिलागा वेट्री कजगम (टीवीके) भी विरोध में सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है. द्रमुक, एमडीएमके, तृणमूल कांग्रेस, माकपा, कांग्रेस (पश्चिम बंगाल) और इंडियन मुस्लिम लीग भी एसआईआर के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर चुके हैं.

अतीत का अनुभव बताता है कि चुनावी राजनीति में आपसी दलगत टकराव के बावजूद विपक्षी दल संसद में सरकार के विरुद्ध एकजुट रणनीति बनाने की कोशिश करते रहे हैं. कुछ मौकों पर उनमें रणनीतिगत भिन्नता भी दिखी है.

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