लंबी परंपरा है मराठीभाषी हिंदी सेवियों की?, मराठी मेरी माता, हिंदी मेरी मौसी

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 18, 2025 05:24 IST2025-07-18T05:24:11+5:302025-07-18T05:24:11+5:30

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका केवल तीन साल ही निकल सकी किंतु उसने दस पुस्तकों की विस्तृत समालोचना की और सत्रह पुस्तकों पर परिचयात्मक टिप्पणियां प्रकाशित कीं.

long tradition Marathi speaking Hindi servants Marathi is my mother but Hindi is my aunt blog Kripashankar Chaubey | लंबी परंपरा है मराठीभाषी हिंदी सेवियों की?, मराठी मेरी माता, हिंदी मेरी मौसी

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Highlightsपत्रिका ने हिंदी में समालोचना विधा को प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण काम किया.हिंदी की उत्‍कृष्‍ट रचनाओं व लेखों का प्रकाशन ग्रंथमाला के रूप में आरंभ किया.‘हिंदी केसरी’ ने हिंदी समाज में तिलक के विचारों का संचार किया.

मराठीभाषी हिंदी सेवियों की बहुत पुरानी परंपरा है. तेरहवीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर (1275-1296) के पद हिंदी में मिलते हैं. उनके पद की कई पंक्तियां प्रसिद्ध हैं. जैसे- ‘पंचरंग से न्यारा होई, लेना एक और देना दोई...’ संत ज्ञानेश्वर की बहन मुक्ताबाई, नामदेव, संत तुकाराम से लेकर आधुनिक काल में संत तुकड़ोजी महाराज तक ने हिंदी में पद लिखे हैं. आधुनिक काल की हिंदी पत्रकारिता की बात करें तो मूलतः मराठीभाषी माधवराव सप्रे ने जनवरी 1900 में छत्तीसगढ़ के पेंड्रा से हिंदी मासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ निकाली. उस पत्रिका ने हिंदी में समालोचना विधा को प्रतिष्ठित करने का महत्वपूर्ण काम किया.

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका केवल तीन साल ही निकल सकी किंतु उसने दस पुस्तकों की विस्तृत समालोचना की और सत्रह पुस्तकों पर परिचयात्मक टिप्पणियां प्रकाशित कीं. सप्रे जी ने हिंदी के विकास के लिए सतत कार्य किया. वे 1905 में नागपुर आ गए और हिंदी ग्रंथ प्रकाशक मंडल का गठन कर हिंदी की उत्‍कृष्‍ट रचनाओं व लेखों का प्रकाशन ग्रंथमाला के रूप में आरंभ किया.

हिंदी ग्रंथमाला के प्रकाशन से राष्‍ट्रव्यापी धूम मचाने के बाद माधवराव सप्रे ने लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक की मराठी साप्ताहिक पत्रिका ‘केसरी’ के अनुसरण में ‘हिंदी केसरी’ का प्रकाशन 13 अप्रैल 1907 को प्रारंभ किया. ‘हिंदी केसरी’ ने हिंदी समाज में तिलक के विचारों का संचार किया.

सप्रे जी 1919-1920 में जबलपुर आ गए और ‘कर्मवीर’ नामक पत्रिका का प्रकाशन उनकी ही प्रेरणा से आरंभ हुआ जिसके संपादक पं. माखन लाल चतुर्वेदी बनाए गए. बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में हिंदी को दो श्रेष्ठ पत्रकार देने का श्रेय भारत विख्यात पुस्तक ‘देशेर कथा’ के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर को जाता है. देउस्कर जी मूलतः मराठीभाषी थे.

वे प्राय: कहा करते थे, “मराठी मेरी माता है, पर हिंदी मेरी मौसी है. मौसी की गोद में ही मेरा लालन-पालन हुआ है और मुझे वह बहुत प्रिय है. मैं उसकी सेवा में सुख अनुभव कर रहा हूं.” बाबूराव विष्णु पराड़कर और लक्ष्मण नारायण गर्दे को हिंदी पत्रकारिता में लाने का श्रेय देउस्कर जी को है. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने देउस्कर जी की प्रेरणा से ही 1906 में कलकत्ता में ‘हिंदी बंगवासी’ से पत्रकारिता शुरू की.

छह महीने बाद पराड़कर जी हिंदी साप्ताहिक ‘हितवार्ता’ के संपादक हुए और चार वर्ष तक वहीं रहे. वे 1911 में ‘भारतमित्र’ के संयुक्त संपादक हुए.  1916  ई. में राजद्रोह के संदेह में वे गिरफ्तार होकर साढ़े तीन वर्ष के लिए नजरबंद किए गए. सन्‌ 1920 में नजरबंदी से छूटने पर वे वाराणसी आ गए. उसी वर्ष 5 सितंबर को दैनिक ‘आज’ का प्रकाशन हुआ जिसकी रूपरेखा की तैयारी के समय से ही संबद्ध रहे.

पहले चार वर्ष तक संयुक्त संपादक और संपादक तथा प्रधान संपादक मृत्यु पर्यंत रहे. बीच में 1943 से 1947 तक ‘आज’ से हटकर वहीं के दैनिक ‘संसार’ के संपादक रहे. लक्ष्मीशंकर व्यास ने अपनी किताब ‘पराड़कर जी और पत्रकारिता’ में एक स्वतंत्र अध्याय लिखा है जिसका शीर्षक है : ‘शब्द जो पराड़कर जी की देन हैं’.

सात पृष्ठों के इस लेख की पहली ही पंक्ति है, “पराड़कर जी ने पत्रकारिता तथा साहित्य साधना की आधी शताब्दी में हिंदी भाषा को सैकड़ों नए शब्द दिए.” इसी लेख में कहा गया है कि सर्वश्री, श्री, राष्ट्रपति, मुद्रास्फीति, लोकतंत्र, नौकरशाही, स्वराज्य, सुराज, नक्राशु, मक्राशु, वातावरण, वायुमंडल, कार्रवाई, वाग्यन्त्र, अंतरराष्ट्रीय, चालू, परराष्ट्र आदि शब्दों के व्यापक प्रयोग तथा प्रचलन का श्रेय पराड़कर जी को है.    

उधर लक्ष्मण नारायण गर्दे ने ‘विशाल भारत’ 1931 के अक्तूबर अंक में स्वयं स्वीकार किया है, ‘‘सन् 1908 ई. में पितृतुल्य स्वर्गीय पं. सखाराम गणेश देउस्कर और बाबूराव विष्णु पराड़कर की तथा अपनी इच्छा से मैं कलकत्ता आकर ‘हिंदी बंगबासी’ में काम करने लगा, यथार्थ में यहीं से मेरे सम्पादकीय जीवन का प्रारम्भ होता है.’’

यह संयोग है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जो काम देउस्कर जी ने किया, वही काम उस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राहुल बारपुते ने किया.  राहुल बारपुते ‘नई दुनिया’ के माध्यम से राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी को पत्रकारिता में ले आए जो बीसवीं शतीब्दी के उत्तरार्द्ध के दो श्रेष्ठ संपादक सिद्ध हुए.हिंदी के संवर्धन में मराठीभाषियों और महाराष्ट्र का बहुत योगदान है.

महात्मा गांधी ने हिंदी के संवर्धन के लिए ही 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की.  समिति के संस्थापकों में एक काका कालेलकर ने मराठी के अलावा हिंदी में विपुल लेखन किया. इसी तरह विनोबा भावे ने 1972 में लिखा था कि, “मैं नागरी लिपि पर जोर दे रहा हूं.  मेरा अधिक ध्यान नागरी लिपि को लेकर चल रहा है.

नागरी लिपि हिंदुस्तान की सब भाषाओं के लिए चले तो हम सब लोग बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे.” मूलतः मराठीभाषी गजानन माधव मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, अनंत गोपाल शेवड़े, चंद्रकांत वांडिवडेकर, दामोदर खड़से, सच्चिदानंद जोशी, राजेंद्र धोड़पकर की हिंदी सेवा से कौन अपरिचित है.

ध्यान देने योग्य है कि ‘शब्दों का सफर’ के माध्यम से हिंदी के शब्दों की व्युत्पत्ति विवेचना कर कोश तैयार करने का महान कार्य कर रहे अजित वडनेरकर मूलतः मराठीभाषी हैं.हिंदी पत्रकारिता में रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, मनोहर खाडिलकर, जगदीश उपासने, आलोक पराड़कर, मनोज खाडिलकर, आनंद देशमुख जैसे अनेक मराठीभाषियों का योगदान है.

अरुण नार्लीकर, हेमचंद पहारे, अरुंधती देवस्थले, वसंत देव, मोरेश्वर गणेश तपस्वी, आनंद कुशवाहा, लेखा पिंपलापुरे, रमेशचंद्र शर्मा, गोपाल शर्मा, एआर रत्नपारखी विद्यालंकार, सदाशिव द्विवेदी, गजानंद चह्वाण, आनंद यादव, रामजी तिवारी, लीना मेंहदेले, लीना वांडिवडेकर और प्रो. आनंद पाटील, संदीप मधुकर सपकाले, राजेंद्र मुढे, सुलभा कोरे जैसे अनुवादक भी हिंदी-मराठी सेतुबंधन में जुटे हैं.

अनिल कुमार, भृंग तुपकरी, शंकर शेष, अनंत वामन वाकणकर, गोविन्द नरहरि बीजापुरकर, श्रीनिवास बालाजी हर्डिकर, गोविन्द हरि वर्डिकर, भालचन्द आपटे, मालोजीराव नार्हिसराव शितोले, सुरेश भट और प्रवीण तुरहाटे ने भी हिंदी की बहुत सेवा की है.  मराठी-हिंदी सेतुबंधन की यह धारावाहिकता बेहद तात्पर्यपूर्ण और गौरतलब है.

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