प्रियंका गांधी को लेकर न केवल कांग्रेस कार्यकर्ता बल्कि आम लोग भी बड़े सकारात्मक नजर आते हैं. सभी को उनमें एक बड़ी उम्मीद नजर आती है. बहुत से लोग उनमें इंदिरा गांधी का अक्स भी देखते हैं. खास तौर पर अमेठी और रायबरेली के लोगों के साथ उनका गहरा नाता रहा है और वहां के लोग बताते हैं कि आम आदमी से प्रियंका गांधी इस कदर घुल-मिल जाती हैं कि कई बार उनके सुरक्षाकर्मी भी हैरत में पड़ जाते हैं.
उनकी सहजता, सरलता और सलीका सबको लुभाता है. मैं खुद उन्हें काफी लंबे समय से जानता रहा हूं और मैंने महसूस किया है कि उनमें दूरदृष्टि और बहुत सरलता है. देश को लेकर तड़प है और आम आदमी की जिंदगी कैसे खुशहाल बने, इसे लेकर वे चिंतित भी नजर आती हैं. यही कारण है कि उनके सक्रिय राजनीति में पदार्पण का चौतरफा स्वागत भी हो रहा है. पिछले साल जुलाई में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के उन सभी नेताओं से अलग-अलग मुलाकात की थी जो पार्टी के विभिन्न विभागों का संचालन कर रहे हैं. उन्होंने ऐसे सभी नेताओं से बस एक ही सवाल पूछा कि अगले 100 दिन का उनके पास क्या एजेंडा है?यह सवाल ही अपने आप में महत्वपूर्ण है. यह एक नेतृत्वकर्ता की असल पहचान है कि वह अपने साथियों के नजरिए को जानने की कोशिश करे. नेताओं से इन मुलाकातों के बाद यह लगने लगा था कि प्रियंका गांधी अब मैदान में पूरी सक्रियता के साथ आने को तैयार हैं. ऐसा नहीं है कि वे पहले मैदान में नहीं थीं. अमेठी और रायबरेली में विभिन्न चुनावों के दौरान वे पर्दे के पीछे से सक्रिय रही हैं. जनसेवा उनके खून में है और राजनीति का कौशल वे तेजी से सीखती रही हैं.
प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता
प्रियंका गांधी को कांटों भरी राह पर चलना है
2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस के तेवर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी ने साफ-साफ कह दिया है कि कांग्रेस अब बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंटफुट पर खेलेगी. निश्चित रूप से फ्रंट फुट पर खेलने की काबिलियत प्रियंका गांधी में भी है. राहुल तो फ्रंट फुट पर पूरी शिद्दत के साथ खेल ही रहे हैं. और हां, एक बात की चर्चा मैं जरूर करना चाहूंगा जिसे विपक्ष बहुत तूल दे रहा है. प्रियंका गांधी को महासचिव बनाए जाने के बाद विपक्षी पार्टियां वंशवाद का घिसा-पिटा नारा बुलंद कर रही हैं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या फिर सोनिया गांधी या राहुल गांधी ने अपनी योग्यता के बल पर इस देश का प्रेम पाया है. यदि कोई लोभ होता तो क्या सोनिया गांधी प्रधानमंत्री का पद ठुकरा देतीं?प्रियंका गांधी भी अपनी योग्यता के बल पर ही टिकेंगी. और क्या विपक्षी पार्टियों में एक ही परिवार के लोग सक्रिय नहीं हैं? हिंदुस्तान ही नहीं, अमेरिका में भी ऐसा होता रहा है. राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के भाई रॉबर्ट और टेड कैनेडी सीनेटर थे. कैनेडी परिवार के और भी कई लोग राजनीति में थे. बुश परिवार के दो लोग राष्ट्रपति बने तो क्या इसे वंशवाद कहेंगे? बिल क्लिंटन और हिलेरी क्लिंटन का उदाहरण क्या वंशवाद है? इस तरह के आरोपों को ओछी राजनीति के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता.