गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: देशी भाषाओं का अनादर राष्ट्रीय हानि है

By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 25, 2019 02:48 PM2019-07-25T14:48:48+5:302019-07-25T14:48:48+5:30

गांधीजी के शब्दों में ‘जिस भाग में मुङो काम करना पड़ा है, कोलकाता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊं के पहाड़ों से नर्मदा तक, अफगानों, मराठों, राजपूतों, जाटों, सिखों, और उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहां मैंने यात्ना की है।

local language in india issue known benefits and loss nation | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: देशी भाषाओं का अनादर राष्ट्रीय हानि है

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: देशी भाषाओं का अनादर राष्ट्रीय हानि है

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मानते थे कि ‘अपने देश की सभी भाषाओं की उन्नति होनी चाहिए पर हिंदी सभी को आनी चाहिए. हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही होनी चाहिए.’ वे भारत की सभी भाषाओं की उन्नति  चाहते थे पर हिंदी का प्रसार या फैलाव अत्यंत व्यापक है इसकी अनदेखी भी नहीं  चाहते थे.

गांधीजी के शब्दों में ‘जिस भाग में मुङो काम करना पड़ा है, कोलकाता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊं के पहाड़ों से नर्मदा तक, अफगानों, मराठों, राजपूतों, जाटों, सिखों, और उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहां मैंने यात्ना की है , मैंने इस भाषा का आम व्यवहार देखा है’ वे आगे कहते हैं कि’ अपने अनुभव और दूसरों से सुनी हुई बातों के बल पर मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक इस विश्वास से यात्ना करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुङो हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिंदुस्तानी बोल लेते होंगे. 

अत: सामाजिक-सांस्कृतिक निकटता लाने के प्रयोजन से और भारत के सभी क्षेत्नों के बीच संवाद और संपर्क बनाए रखने के लिए देश की शिक्षा व्यवस्था में हिंदी के लिए जगह दी जाए तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए. सद्य: प्रस्तुत की गई शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा सूत्न के अंतर्गत किए गए प्रावधान में क्षेत्नीय (मातृभाषा), हिंदी और अंग्रेजी का अध्ययन प्रस्तावित किया गया जो भारत की बहु भाषाई परिस्थिति में एक जरूरी व्यवस्था प्रतीत होती है. 

हिंदी का आज के सार्वजनिक जीवन में-मीडिया , बाजार, मनोरंजन , फिल्म,  संगीत आदि में उसकी उपस्थिति भारत में  चारों ओर प्रबलता से दिख रही  है.

दुर्भाग्यवश हिंदी को लेकर संवैधानिक व्यवस्था में ऐसे पेंच फंसाए गए जिनसे निकलना आज तक संभव नहीं हो सका. उसे राजभाषा का दर्जा देकर भी उस तरह से प्रयोग का अवसर आज तक नहीं मिल सका.  उसके लिए यह विकट शर्त लगाई गई कि जब तक सर्वानुमति न हो जाए हिंदी को प्रतीक्षा करनी होगी.  ज्ञान के प्रश्न का राजनैतिक सुविधा की दृष्टि से उत्तर देना कदाचित हितकर नहीं है.

अपनी मातृभाषा से भिन्न एक और भारतीय भाषा का अध्ययन  अपने देश के समाज और संस्कृति के ज्ञान के लिए भी जरूरी है जिसके आधार पर  समर्थ भारत का निर्माण हो सकेगा. अत: यह स्वाभाविक है कि मातृभाषा में सरलता से शिक्षा देने की व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें सहज अभिव्यक्ति संभव होती है.

यह भय अकारण है कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं का स्थान ले लेगी. यह अंतर प्रांतीय संपर्क के काम में आ रही है और आगे भी इसकी अधिक संभावना है. चूंकि इसे अधिसंख्य लोग बोलते हैं इसलिए इसका उपयोग होना चाहिए संपर्क भाषा के रूप में होना चाहिए . 

सरकारी तंत्न में हिंदी के लिए पुरस्कार दे कर और हिंदी दिवस मना  कर बहलाया- फुसलाया जाता है . साथ ही हिंदी के स्वाभाविक विकास की जगह उसका टकसाली कृत्रिम रूप लोगों को भयावह सा लगता है. हिंदी क्षेत्नों का दायित्व बनता है कि सरकारी पहल की प्रतीक्षा किए बिना  हिंदी को सहज रूप दें और अन्य भारतीय भाषाओं  के साथ उसके पारस्परिक संबंध को सम्मानजनक रूप से समृद्ध करें.

Web Title: local language in india issue known benefits and loss nation

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