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राज्यों के स्तर पर भी हो सकते थे कृषि सुधार, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 5, 2021 12:12 IST

राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर राज्य सरकारें अपनी-अपनी परिस्थितियों में अमल कर  रही हैं. इस उदाहरण से सबक यह निकलता है कि केंद्र सरकार चाहे तो इस कृषि संबंधी विवाद को राज्यों के दायरे में स्थानांतरित कर सकती है.

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ठळक मुद्देआंदोलनकारी किसान मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं. अपेक्षाकृत खुशहाल किसान महाराष्ट्र, गुजरात, म.प्र., कर्नाटक और उत्तराखंड में भी हैं.हिंदू विवाह कानून ने कांग्रेस के भीतर और बाहर जबर्दस्त विवाद को जन्म दिया था.

संविधान के अनुच्छेद 246 के मुताबिक कृषि राज्यों का मामला है. यह बात सही है कि केंद्र को कानून बनाने के अधिकार हैं, पर समझने की बात यह है कि अगर सरकार कानून बनाने के झंझट में पड़ने के बजाय एक विस्तृत कृषि नीति बनाती और राज्यों से उसे लागू करने के लिए कहती तो क्या परिणाम निकलता?

क्या सरकार ने शिक्षा के मामले में ऐसा नहीं किया? उसने एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाई और चूंकि संविधान के मुताबिक शिक्षा राज्यों का विषय है इसलिए उस राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर राज्य सरकारें अपनी-अपनी परिस्थितियों में अमल कर  रही हैं. इस उदाहरण से सबक यह निकलता है कि केंद्र सरकार चाहे तो इस कृषि संबंधी विवाद को राज्यों के दायरे में स्थानांतरित कर सकती है.

मोटे तौर पर देखें तो आंदोलनकारी किसान मुख्य रूप से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं. इसी तरह के अपेक्षाकृत खुशहाल किसान महाराष्ट्र, गुजरात, म.प्र., कर्नाटक और उत्तराखंड में भी हैं. यानी कुल मिला कर यह सात-आठ राज्यों के किसानों का मामला है. अगर सरकार इन कानूनों में लिखे प्रावधानों को एक कृषि नीति में गूंथ कर उसे राज्यों से लागू करवाती तो हो सकता है कि कुछ देर लगती, लेकिन न इस तरह का विवाद पैदा होता, और न ही सरकार को इस राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ता.

एक तरह से देखा जाए तो मोदी सरकार ने इस मामले में न तो अतीत से सीखा और न ही अपने खुद के तजुर्बे का लाभ उठाया.  जवाहरलाल नेहरू की पहली सरकार ने एक मिसाल पेश की थी कि अगर कोई कानून विवादास्पद हो जाए (और फिर भी सरकार को उसकी जरूरत महसूस हो रही हो) तो उसे कैसे पास कराया जा सकता है. हिंदू विवाह कानून ने कांग्रेस के भीतर और बाहर जबर्दस्त विवाद को जन्म दिया था. कांग्रेस के भीतर से उसके विरोध में आवाज उठ रही थी.

इस सिलसिले में कानून मंत्री डॉ. आंबेडकर का भी प्रधानमंत्री से झगड़ा हो गया था. ऐसे में नेहरू ने राजनीतिक लचीलेपन और कुशलता का परिचय देते हुए उस विधेयक को एकमुश्त पारित करवाने के बजाय तीन हिस्सों में बांट कर इस तरह से एक के बाद एक पास कराया कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी. स्वयं मोदी सरकार को इस मामले में अपना शुरुआती तजुर्बा याद करना चाहिए.

मोदीजी ने सत्ता में आते ही भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी किया जो तुरंत विवादों में फंस गया. तीन बार कोशिश करने के बाद भी जब सरकार अध्यादेश के लगातार हो रहे विरोध से नहीं निबट पाई तो उसने चौथी बार अध्यादेश जारी करने का इरादा त्याग दिया. इसके बाद सरकार ने किसानों की जमीनें अधिग्रहीत करने के लगभग वही प्रावधान राज्यों के स्तर पर लागू करवाए. आज स्थिति यह है कि बिना किसी शोरशराबे के लगभग वही प्रावधान राज्यों द्वारा अमल में लाए जा रहे हैं.

इसी जगह सवाल पूछा जा सकता है कि जब सरकार के पास ये विकल्प मौजूद थे तो उसने कृषि कानून बनाने की आफत क्यों मोल ली? जो काम शांति से हो सकता था, उसके लिए बेचैनियां पैदा करने का रास्ता क्यों चुना गया? इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं. पहला तो बिल्कुल साफ है.

मोदी भारतीय कृषि को कॉर्पोरेटीकरण के चरण में ले जाना चाहते हैं और राज्यों के रास्ते यह काम शायद उतने ठोस रूप से पूरे देश के पैमाने पर एक साथ नहीं हो सकता था. दूसरा जवाब तलाशने के लिए हमें मोदी के नेतृत्व की उन प्रवृत्तियों को खंगालना होगा जो उनके शासन के पहले दिन से ही दिखाई पड़ रही है. दरअसल, मोदी भारतीय समाज, उसकी सोच-समझ और व्यवहार-शैली को भीतर-बाहर से बदलने पर आमादा दिखाई पड़ रहे हैं. इसका पहला नमूना स्वच्छता अभियान था. इसमें दावा भी किया गया था कि इससे समाज का बुनियादी रवैया बदलेगा.

इसके बाद अचानक और तर्कहीन ढंग से की गई नोटबंदी के दौरान नकदी के इस्तेमाल की जगह डिजिटल मनी के प्रचलन पर जोर देकर समाज के आर्थिक व्यवहार को तब्दील करने की चर्चा की गई. जब से मोदी का शासन आया है, शायद ही कोई वर्ष गया हो जब उनके किसी-न-किसी फैसले से समाज में बेचैनियां न पैदा हुई हों. पिछले साल इन्हीं दिनों सारे देश में नागरिकता कानूनों और एनआरसी के कारण राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी.

कभी नागरिकों से कहा जाता है कि वे फलानी नंबर प्लेट लगाएं, कभी किसी स्टिकर को लगाने का हुक्म जारी हो जाता है, कभी टोल प्लाजा के लिए फास्ट टैग की आखिरी तारीख घोषित हो जाती है. अभी किसानों की समस्या सुलझी नहीं है, आंदोलन जारी है, दिल्ली का घेरा पड़ा हुआ है, सरकार समस्या का समाधान करने में नाकाम है- लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार सारे देश में एक साथ चुनाव कराने के सवाल पर नई राजनीतिक मुहिम में जुट गई है.

दरअसल, कृषि कानूनों के सवाल पर सरकार खासे अलोकतांत्रिक रवैये का मुजाहिरा कर रही है. सरकार के सामने सुप्रीम कोर्ट ने भी एक रास्ता खोला था कि अगर इन विवादास्पद कानूनों को ‘होल्ड पर’ यानी स्थगित कर दिया जाए तो किसान संगठनों से हो रही वार्ता कामयाब हो सकती है. इससे दोनों पक्षों की बात रह जाती. लेकिन सरकार ने शायद इस विकल्प पर विचार ही नहीं किया.

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