ब्लॉग: नेहरूजी ने रिहाई के लिए नहीं मांगी थी माफी

By सुरेश भटेवरा | Published: April 5, 2023 12:28 PM2023-04-05T12:28:24+5:302023-04-05T13:34:27+5:30

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने हाल में ‘लोकमत नेशनल मीडिया कॉन्क्लेव’ में कहा था कि नाभा जेल से छुटकारा पाने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने ब्रिटिशों से माफी मांगी थी. वरिष्ठ पत्रकार सुरेश भटेवरा ने इसे गलत बताते हुए ये लेख लिखा है.

Jawahar Lal Nehru did not apologize for his release from Nabha | ब्लॉग: नेहरूजी ने रिहाई के लिए नहीं मांगी थी माफी

ब्लॉग: नेहरूजी ने रिहाई के लिए नहीं मांगी थी माफी

हाल ही में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘लोकमत नेशनल मीडिया कॉन्क्लेव’ में कहा, ‘नाभा जेल से छुटकारा पाने के लिए पंडित नेहरू ने ब्रिटिशों से माफी मांगी थी.’ ठाकुर का यह वक्तव्य पूरी तरह से गलत है. देश के स्वतंत्रता संग्राम  के दौरान 1921 से 1945 तक नेहरू कुल 9 बार जेल गए. उनके कारावास की कुल अवधि 3259 दिन यानी लगभग 9 वर्ष थी. इनमें नाभा रियासत में उनके कारावास का क्रम तीसरा है. इसके बाद नेहरूजी ने भारत की विभिन्न जेलों में 6 और लंबी अवधि के कारावास भोगे. 

सच यह है कि नेहरूजी ने नाभा रियासत में ही नहीं, बल्कि देश की किसी भी जेल में कभी भी इस पूरी अवधि में अपनी रिहाई के लिए माफी नहीं मांगी. पाठकों के समक्ष नेहरूजी के नाभा कारावास का वास्तविक मामला रखना जरूरी है.

पटियाला और नाभा पंजाब में दो सिख रियासतें थीं. उनके राजाओं के बीच लगातार झगड़ा होता रहता था. परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने नाभा के राजा को गद्दी से उतार दिया. रियासत का कामकाज देखने के लिए एक प्रशासक नियुक्त किया गया. सिख समुदाय ने नाभा नरेश को पदच्युत करने का विरोध किया. राज्य के अंदर और बाहर विरोध शुरू हो गया. जैतो गांव के ‘अखंड पाठ’ पर अंग्रेज प्रशासक ने रोक लगा दी. जनता नाराज थी. जैतो में अखंड पाठ पुन: आरंभ किया जाए इसके लिए सिखों ने वहां जत्थे भेजने शुरू किए. 

पुलिस इन्हें रोकती थी. उन पर लाठीचार्ज होता था. कुछ लोगों को बंदी बनाकर घने जंगल में छोड़ दिया जाता था. इस सारे घटनाक्रम को पंडित नेहरू समाचार पत्रों में पढ़ते रहते थे. इसी बीच दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ. नेहरू को इसी समय एक अलग तरह का आमंत्रण मिला. ‘जैतो की ओर एक और जत्था जाने वाला है, वहां क्या हो रहा है, यह देखने के लिए आप भी साथ चलें.’ नेहरूजी ने इस आमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उनके साथ दो सहयोगी आचार्य गिडवानी और मद्रास के के.के. सन्थानम भी थे. ये तीनों जत्था निकलने से थोड़ी देर पहले वहां पहुंच गए और जत्थे के साथ, थोड़ी दूरी बनाकर चलने लगे. 

जत्था जैसे ही जैतो में पहुंचा, पुलिस ने रोक लिया. उसी समय ब्रिटिश प्रशासक के दस्तखत वाला एक आदेश नेहरूजी सहित तीनों व्यक्तियों को थमाया गया. उसमें लिखा गया था, ‘आप नाभा रियासत में प्रवेश न करें. यदि प्रवेश कर लिया हो, तो तत्काल वापस चले जाएं.’ नेहरूजी ने पुलिस अधिकारी से कहा, ‘हम केवल दर्शक हैं. जत्थे में हमारी सहभागिता नहीं है. कानून तोड़ने का हमारा कोई इरादा नहीं है. प्रशासक का आदेश मिलने से पहले ही हमने नाभा में प्रवेश कर लिया है. अत: प्रवेश न करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता. अगली ट्रेन कुछ घंटों बाद है. तब तक हमें जैतो में ही रुकना होगा.’ 

नेहरूजी का उत्तर सुन तीनों को बंदी बना जेल भेज दिया गया. अपराधियों की तरह हथकड़ियां पहना जैता के भीड़भाड़ वाले इलाकों से उन्हें घुमाते हुए रेलवे स्टेशन ले जाया गया. नेहरूजी और सन्थानम को एक ही हथकड़ी पहनाई गई थी. एक अलग हथकड़ी पहने आचार्य गिडवानी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे. इससे तीनों नाराज हुए. लेकिन मन में विचार आया कि जीवन का यह एक नया अनुभव है. इसे खुशी-खुशी स्वीकार करना चाहिए. इसके बाद ठसाठस भरी पैसेंजर ट्रेन के थर्ड क्लास के डिब्बे में तीनों को चढ़ाया गया. 

आधी रात को ट्रेन बदलनी पड़ी. उसके बाद नाभा की जेल में उनकी रवानगी हुई. वहां पर बहुत नीची, सीलन भरी गंदी कालकोठरी में तीनों को धकेल दिया गया. हथकड़ियां खुली नहीं थीं. एक-दूसरे की मदद के बिना उनके लिए हिलना-डुलना संभव नहीं था. थोड़ा आराम कर लें, यह सोचकर तीनों जमीन पर लेट गए. झपकी आई ही थी कि उनके चेहरे और शरीर पर चूहे कूद-फांद करने लगे. नींद उड़ गई. रात भर तीनों जागते रहे.  

तीन दिनों के बाद तीनों को एक न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया. वहां एक सप्ताह तक प्रतिदिन मुकदमे की कार्यवाही चलती रही. जज को कामचलाऊ अंग्रेजी आती थी. मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने एक लाइन भी नहीं लिखी. अगर कुछ दर्ज करवाना हो तो वहां उपस्थित अधिकारी को निर्देश देते थे. मुकदमा बहुत सामान्य था, लेकिन सुनवाई खिंचती चली गई. तीनों ने अपने बचाव में कुछ नहीं कहा. क्योंकि कांग्रेस ने यही निर्णय लिया था. उन्हें एक दिन देर तक एक इमारत में रखा गया. 

शाम को दूसरे कमरे में ले जाया गया. न्यायाधीश की तरह दिखने वाले एक सज्जन वहां बैठे थे. उस कमरे में कुछ और लोग भी थे. जैतो में जिस अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार किया था, वह न्यायाधीश के सामने खड़ा हुआ. अपनी बात कहने लगा. तब नेहरूजी ने उससे पूछा, ‘आखिर ये सब चल क्या रहा है?’ तब उन्हें बताया गया, ‘नाभा में आपने जो षड्यंत्र रचा, उस अपराध की सुनवाई चल रही है.’ 

सप्ताह भर तक तीनों यही सोच रहे थे, ‘हम तो केवल जत्थे के पीछे-पीछे चल रहे थे. बहुत हुआ तो कानून के उल्लंघन का आरोप लगेगा. इसके लिए सिर्फ छह महीने कैद की सजा है. शायद इसीलिए हम जेल में हैं.’ षड्यंत्र रचने का मुकदमा नया ही था. कानूनी तौर पर इसके लिए तीन आरोपी पर्याप्त नहीं थे, इसलिए मामले में एक सिख को भी आरोपी बनाया गया. तीनों ही उसे पहचानते नहीं थे. इस झूठे मुकदमे को देखते हुए नेहरूजी के भीतर के बैरिस्टर को झटका लगा. 

नेहरूजी ने न्यायाधीश से कहा, ‘हमें इस मुकदमे की जरा भी जानकारी नहीं दी गई है. हम अपने बचाव का इंतजाम करना चाहते हैं.’ लेकिन नाभा की न्यायप्रक्रिया अजीब ही थी. वकील नियुक्त किया जा सकता है क्या, यह प्रश्न पूछने पर नेहरूजी को बताया गया कि नाभा में बचाव के लिए वकील नियुक्त करने की व्यवस्था नहीं है. अंत में नेहरूजी ने न्यायाधीश से कहा, ‘आज जो चाहें, सो करें. इस तरह की कार्यवाही में हम हिस्सा नहीं लेंगे.’

दोनों मुकदमे लगभग बारह दिन तक चले. सुनवाई के लिए तीनों को हर दिन कोर्ट में ले जाया जाता था. उतनी देर के लिए उन्हें उस गंदी कालकोठरी से मुक्ति मिल जाती, इतना ही संतोष था. इस बीच ब्रिटिश प्रशासक का संदेश लेकर जेल सुपरिंटेंडेंट वहां पहुंचा. उसने नेहरूजी से कहा, ‘यदि आप माफी मांग लें, नाभा से तुरंत वापस लौटने का वचन दें तो यह मुकदमा वापस ले लिया जाएगा.’ इस पर नेहरूजी ने थोड़ा नाराज होते हुए पूछा, ‘किस बात की माफी? हमने माफी मांगने जैसा किया ही क्या है? हमारे विरुद्ध पेश किए गए सबूत झूठे हैं. इसके लिए रियासत को हमसे माफी मांगनी चाहिए.’ अंतत: पंद्रह दिन बाद दोनों मामले खत्म कर दिए गए.

न्यायालयीन प्रक्रिया प्रशासक से पूछ-पूछ कर की जा रही थी, संभवत: इसीलिए इतना समय लगा. तीनों को आदेश के उल्लंघन के लिए छह महीने और षड्यं‌त्र के लिए दो साल की सजा सुनाई गई थी. न्यायाधीश ने अपने फैसले में वास्तव में क्या लिखा-इसकी जानकारी नहीं दी गई. नेहरूजी ने फैसले की प्रति मांगी, जिस पर उन्हें कहा गया, ‘प्रति के लिए अलग से आवेदन करें.’

दूसरी तरफ कुछ अलग ही घटनाक्रम चल रहा था. फैसला आते ही जेल सुपरिंटेंडेंट ने तीनों को बुलाया. प्रशासक का आदेश दिखाया, उसमें तीनों को बिना शर्त रिहा करने की बात लिखी थी. नाभा में पंडित नेहरू, आचार्य गिडवानी और के.के. सन्थानम पर चलाया गया मुकदमा पूरी तरह से गलत था. फिर जेल सुपरिंटेंडेंट ने नेहरूजी को प्रशासक का एक और आदेश दिखाया. उसमें लिखा गया था, ‘क्रिमिनल कोड प्रोसिजर के तहत आप तीनों की सजा निलंबित की जाती है. आप नाभा की सीमा से बाहर चले जाएं. बिना अनुमति दोबारा प्रवेश न करें.’

नेहरूजी ने आदेश की प्रति मांगी, लेकिन देने से साफ मना कर दिया गया. तीनों को जेल वैन से ही रेलवे स्टेशन भेजा गया. ये तीनों नाभा में किसी को नहीं जानते थे. शाम होने के बाद रियासत के फाटक भी बंद कर दिए गए थे. तब तीनों अंबाला जाने वाली ट्रेन में बैठ गए. वहां से दिल्ली पहुंचे. नेहरूजी दिल्ली से इलाहाबाद गए.

नाभा की जेल में बारह दिन रहने के कारण तीनों को टाइफाइड बुखार चढ़ गया. 1923 की सर्दियों में नेहरूजी अगले चार हफ्तों तक बिस्तर पर ही पड़े रहे. गिडवानी और सन्थानम को स्वस्थ होने में नेहरूजी से भी अधिक समय लगा. ये है नाभा प्रकरण की हकीकत! इसमें नेहरूजी ने अपनी रिहाई के लिए किसी से भी माफी मांगी ही नहीं थी.

Web Title: Jawahar Lal Nehru did not apologize for his release from Nabha

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