पंकज चतुव्रेदी का ब्लॉग: पानी सहेजने की आदत ही बचाएगी जल संकट से
By पंकज चतुर्वेदी | Published: April 9, 2022 12:30 PM2022-04-09T12:30:52+5:302022-04-09T12:34:30+5:30
भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है।
इस बार भी अनुमान है कि ग्रीष्म ऋतु के बाद मानसून की कृपा देश पर बनी रहेगी. ऐसा बीते दो साल भी हुआ लेकिन उसके बावजूद बरसात के विदा होते ही देश के बड़े हिस्से में बूंद-बूंद पानी के लिए मारामारी शुरू हो गई. जानना जरूरी है कि नदी-तालाब-बावड़ी-जोहड़ आदि जलस्नेत नहीं हैं, ये केवल जल को सहेज रखने के खजाने हैं, जलस्नेत तो बारिश ही है और जलवायु परिवर्तन के कारण साल-दर-साल बारिश का अनियमित होना, बेसमय होना और अचानक तेज गति से होना घटित होगा ही.
आंकड़ों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं.
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्रहि-त्रहि करती है. असल में इस बात को लोग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है.
जरा देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए. भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 प्रतिशत क्षेत्रफल है. दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं जबकि जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है. हमें हर साल औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है. यह बात दीगर है कि हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित हो पाता है.
शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है. जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं. हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है. इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है. इसीलिए थोड़ा भी कम बरसने पर किसान चिंतित होता है.
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किमी है, जबकि सभी नदियों का सम्मिलित जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किमी है. भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है. देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, जबकि दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है. जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न
तो बारिश से होता है और न ही नदियों से.
जल को ले कर हमारी मूल सोच में थोड़ा बदलाव करना होगा- एक बात जान लें कि जल का स्नेत केवल बरसात है या फिर ग्लेशियर. हमें अभी तक जो पढ़ाया जाता है कि नदी, समुद्र, तालाब, कुआं-बावड़ी जल के स्नेत हैं, तकनीकी रूप से गलत है- ये सभी जल को सहेजने के तंत्र हैं. दुखद है कि बरसात की हर बूंद को सारे साल जमा करने वाले गांव-कस्बे की छोटी नदियां बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ के चलते या तो लुप्त हो गईं या गंदे पानी के निस्तार का नाला बना दी गईं.
देश के चप्पे-चप्पे पर छितरे तालाब तो हमारा समाज पहले ही चट कर चुका है. बाढ़-सुखाड़ के लिए बदनाम बिहार जैसे सूबे की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा. गत तीन दशक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं. अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, फल्गू, घाघरा आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं. झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाइलों में तो दर्ज हैं लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं.
राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी देखते ही देखते अतिक्रमण के घेर में मर गई. हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया गया है. यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जल धारा मर गई. नदियों की जीवनस्थली कहा जाने वाला उत्तराखंड हो या फिर दुनिया की सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर मेघालय, छोटी नदियों के साल-दर-साल लुप्त होने का सिलसिला जारी है.
प्रकृति तो हर साल कम या ज्यादा पानी से धरती को सींचती ही है लेकिन असल में हमने पानी को लेकर अपनी आदतें खराब कीं. जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चलाकर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलीचा जाता था. घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है.
हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बचकर पारंपरिक जल स्नेतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है. अब कस्बाई लोग बीस रुपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है.