धर्म-समाज की बढ़ती राजनीतिक ठेकेदारी
By Amitabh Shrivastava | Updated: April 5, 2025 07:22 IST2025-04-05T07:22:17+5:302025-04-05T07:22:20+5:30
हालांकि जिन चिंताओं को आज बताया जा रहा, उनका निराकरण पिछले कई चुनावों के समीप आने से पहले होना चाहिए था.

धर्म-समाज की बढ़ती राजनीतिक ठेकेदारी
पिछले साल महाराष्ट्र में हुए दो चुनावों ने स्पष्ट किया है कि राज्य की जनता राजनीतिक निर्णय लेने की क्षमता रखती है, जिससे सत्तारूढ़ व विपक्ष में बैठे दलों ने जन भावना को समझा. बावजूद इसके औरंगजेब से लेकर वक्फ और कुंभ से लेकर मराठी बोलने के नाम पर राज्य में अस्थिरता पैदा करने के प्रयास जारी हैं. यदि बरगलाने के हथकंडों को देखा जाए तो उनके पीछे मतों का ध्रुवीकरण दिखाई देता है.
इसमें कोई एक दल आगे नहीं माना जा सकता है, क्योंकि सबका उद्देश्य समान है. हालांकि उसे पाने का तरीका अलग-अलग है. कोई धर्म के नाम और कोई जाति के नाम पर मतों का हिस्सा-बांट करना चाहता है. यद्यपि इसका किसी भी समाज को लाभ नहीं हो रहा है. किसी के भी पास शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और गरीबी दूर करने के उपाय ढूंढ़ने के लिए वक्त नहीं है.
जितना समय चुनाव के बाद से लेकर अगले चुनाव तक एक-दूसरे दल पर छींटाकशी में जाता है, उतना यदि आम जनता के दु:ख-दर्द सुनकर समाधान निकालने में लगा दिया जाए तो निश्चित ही समाज में सुधार और बदलाव दिखने लगेगा. मगर संभव है कि इस प्रयास में मत मिलने की पक्की गारंटी न मिले.
राज्य में पिछले साल हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सभी दलों को अप्रत्याशित मत मिले. लोकसभा में जहां शिवसेना ठाकरे गुट, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के शरद पवार गुट की महाविकास आघाड़ी को अधिक सीटें मिलीं, वहीं विधानसभा चुनाव में शिवसेना शिंदे गुट, भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) और राकांपा अजित पवार गुट के महागठबंधन को बड़ी सफलता मिली.
लोकसभा चुनाव में भाजपा को भरोसा राम मंदिर के नाम पर मतों के मिलने का था, जो मतदाताओं ने तोड़ दिया. विधानसभा चुनाव में शिवसेना ठाकरे गुट और राकांपा शरद पवार गुट की उम्मीद मराठा आरक्षण आंदोलन तथा दलीय टूट-फूट से तैयार सहानुभूति पर टिकी थी. किंतु मतदाताओं ने दोनों को ही तहस-नहस कर दिया. अब दोनों चुनावों के बाद कई महीने बीत चुके हैं, किंतु हार-जीत पर किसी दल के समक्ष कोई ठोस कारण सामने नहीं आया है.
हर एक पार्टी अपनी विजय-पराजय अपने हिसाब से तर्कसंगत बना रही है. फिलहाल अगले चुनाव के लिए साढ़े चार साल का समय है, मगर आने वाले दिनों में स्थानीय निकायों के चुनावों के होने की प्रबल संभावना है. इसलिए मतदाता को अभी से ही भटकाना आरंभ हो चुका है.
राज्य के महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) जैसे दल, जो पिछले दोनों चुनावों में अपनी पुरानी स्थितियों को संभाल पाने में विफल रहे, वे समाज की राजनीतिक ठेकेदारी का जिम्मा अपने सिर पर उठा चुके हैं. मनसे की संगठन के पुनर्गठन से लेकर नई रणनीति पर काम करने की तैयारी ही नहीं, बल्कि उस पर चलना भी आरंभ हो गया है.
ठीक उसी तरह एआईएमआईएम का औरंगजेब के नाम से वक्फ के काम से समाज में दखल बढ़ गया है. इनके अतिरिक्त चुनावों में सीटें जीतने वाले भाजपा, शिवसेना, राकांपा के पास भी अपने-अपने पैंतरे हैं. भाजपा ने पहले कुंभ का सहारा लिया. आगे राम नवमी से लेकर छत्रपति संभाजी महाराज तक सामाजिक जागृति बढ़ाई जाएगी.
कांग्रेस के पास संविधान के नाम पर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के बहाने दलित समाज को एकजुट करने का तरीका है, जिससे वह भाजपा पर आक्रमण कर सकती है. वहीं राकांपा के पास मराठा समाज के साथ सहानुभूति की भावना रखकर अपना रास्ता आसान बनाना है. इन पूरे समीकरणों में अलग-अलग समाज का किसी न किसी राजनीतिक दल को आसरा है, फिर भी सामाजिक चिंताओं के निराकरण पर किसी का भरोसा नहीं है.
यह समझना जरूरी है कि मुस्लिमों की चिंता केवल औरंगजेब और वक्फ की संपत्ति नहीं है. उन्हें अच्छी शिक्षा, रोजगार और रहने के लिए घर की आवश्यकता है. जिसे उनके रहनुमा बनने वाले दलों ने कितना दिलवाया है, वह कागजों पर दर्ज है. मराठा समाज कई वर्ष से अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहा है.
वह गैर राजनीतिक मंच बनाकर भी सामने आया, लेकिन उसके राजनीतिक समर्थकों ने समाज को मतों के ध्रुवीकरण का हथियार बनने से अधिक कुछ नहीं दिया. मराठी मानुस की चिंता में मनसे ने 19 साल बिता दिए हैं, लेकिन उसे मराठी मतों से चुनावी सफलता नहीं मिली है. जो सिद्ध करती है कि राजनीतिक और सामाजिक चिंताओं में विरोधाभास है.
मराठी बोली-भाषा की दादागीरी उन लोगों के साथ अधिक की जाती है, जो देश की ‘फ्लोटिंग पॉपुलेशन’ कही जाती है. भाषा के नाम पर बार-बार उदाहरण देश के दक्षिणी भाग का दिया जाता है, जहां न देश की वाणिज्यिक राजधानी है और न ही क्षेत्रीयता के बंधनों के कारण भविष्य में बनने की कोई संभावना दिखती है.
उधर, दोनों शिवसेना अभी तक अपनी सोच को लेकर स्पष्ट नहीं हैं, इसलिए उनमें भटकाव साफ दिखता है. मुंबईकर से लेकर समूचे महाराष्ट्र की एकतरफा चिंता को राजनीति के अलावा कहीं महत्व नहीं दिया जाता है. सालों-साल से मुंबई के ऊपर राज करने वाले आज भी महानगर की समस्याओं को इस तरह उठाते हैं, जैसे अभी-अभी राजनीति में कदम रखा हो. हालांकि जिन चिंताओं को आज बताया जा रहा, उनका निराकरण पिछले कई चुनावों के समीप आने से पहले होना चाहिए था.
किंतु आम जनता को हमेशा मतदाता की नजर देखना और समस्याओं को किनारे कर धर्म-समाज की ठेकेदारी राजनीतिक दलों का मुख्य उद्देश्य बन चला है. कुछ ढकोसलों और बहलाने-फुसलाने के तरीकों से आम आदमी को विवेकहीन बनाना लगातार जारी है. बावजूद इसके कि मतदाता भी अपनी जगह समझदार हो चुका है. उसे लोकसभा और विधानसभा चुनाव का अंतर भी समझ आ चुका है. संभव है कि आने वाले दिनों में स्थानीय निकायों के चुनावों के माध्यम से एक बार फिर वह राजनीतिज्ञों को अपना कोई संदेश देगा, जिसमें उसकी चिंताएं साफ दिख जाएंगी.