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रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: वायरल मोमेंट के इंतजार में दुबले होते हिन्दी लेखक

By रंगनाथ सिंह | Published: April 27, 2022 12:14 PM

लेखकों के छोटे-छोटे जुमले और उसके साथ उनकी बड़ी तस्वीर आप भी सोशलमीडिया पर अक्सर देखते होंगे! रंगनाथ सिंह ने इस आलेख में लेखकों में बढ़ती चेहरा दिखाने की इस प्रृवत्ति की पड़ताल की है।

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बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि अमेरिका में हर किसी को अपने वायरल मोमेंट का इंतजार है और उसके लिए वह कुछ भी कर सकता है! तब वह बात अजीब लगी थी। अब यह रोज हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा है। आज आप कोई चालू या घटिया बात बोल दीजिए। उसपर थाना-कचहरी हो जाए आप रातोंरात विचारक-चिन्तक-लेखक-पत्रकार-बुद्धिजीवी-सोशलमीडिया इन्फ्लूएंसर बन सकते हैं। 

यह बीमारी इतनी गहरी हो चुकी है कि जेएनयू-डीयू के प्रोफेसर कट-कॉपी-पेस्ट कारखाने के कुंजी लेखकों की किताबें प्रमोट कर रहे हैं! कोई पीएम, सीएम या राष्ट्रपति को माँ-बहन की गाली दे दे और उसपर कोई उतना ही सिरफिरा थाना-कचहरी कर दे तो गाली देने वाले का सोशलमीडिया स्टार बनना तय है। एक प्लेकार्ड या एक फोटो या किसी वीडियो या अहमकाना ट्वीट या पोस्ट से आप नोम चोम्स्की से ज्यादा सोशलमीडिया फॉलोवर बटोर सकते हैं। 

पापुलैरिटी की हवस ने बहुतों को पागल कर दिया है। पापुलैरिटी की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह मोमेंटरी है। पहले ये मोमेंट लम्बे होते थे, अब तो मोमेंटरी ही हो चुके हैं। कुछ साल पहले एक अभिनेत्री एवं अभिनेता के सम्भोग की क्लिप पब्लिक हो गयी थी। बाद में कुछ लोगों ने कहा कि एक पीआर एजेंसी ने सलाह दी थी कि इससे मिलने वाली पापुलैरिटी से उनका करियर रिवाइव हो सकता है। उस क्लिप वाली अभिनेत्री का करियर तो रिवाइव नहीं हुआ लेकिन एक दूसरे सिंगर का डूबता करियर इसलिए रिवाइव हो गया क्योंकि उन्होंने एक स्त्री का जबरदस्ती चुम्मा ले लिया था। हुई तो जबरदस्ती थी लेकिन उसके बाद दोनों ही फायदे में रहे, ऐसा उनकी कुछ साल बाद की खबरों को देखकर लगा। 

बाकी पेशों का नहीं पता लेकिन लेखन और लोकप्रियता के बीच कैच-22 की स्थिति बनी रहती है। एक समय लोकप्रिय होने की किसी भी अशालीन कोशिश को पापुलिस्ट कहकर हतोत्साहित किया जाता था। एक समय ऐसा आया कि लोग कहने लगे कि जो पापुलर नहीं है उसका होना ही व्यर्थ है। पापुलैरिटी का नशा कोकीन, गाँजे, शराब से अलग नहीं है। शोबिज में फेस-पापुलैरिटी का महात्म्य पुराना है। लेखन जगत में इसने देर से एंट्री ली। पापुलैरिटी के नशे के बिजली की गति से फैलने का लाभ एक दूसरे लेखक वर्ग ने भी लिया और यह घोषित कर दिया कि कोई पापुलर नहीं है इसका अर्थ है कि वह महान प्रतिभाशाली है, बस लोग उसे समझ नहीं पा रहे हैं! अफसोस ऐसी घोषणा करने वालों के जीवन का उद्देश्य भी लो-लेवल की पापुलैरिटी हासिल करना ही था और वो उसके लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते रहे। 

पापुलैरिटी की हवस पुरानी बीमारी है। पिछले कुछ सालों में इस बीमारी में कुछ नए आयाम जुड़ गये हैं जिससे यह और खतरनाक हो चुकी है। पापुलैरिटी की बीमारी को पहले कैमरे और फिर सोशलमीडिया के आविष्कार नए गम्भीर स्तर तक पहुँचा दिया है। हिन्दी में ऐसे लेखकों की संख्या दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती जा रही है जिनकी सबसे प्रमुख महत्वाकांक्षा यह बन चुकी है कि लोग उनका चेहरा पहचान लें। लोग पहचान लें कि ये महान जुमला इन्हीं महान चेहरे वाले महान लेखक ने लिखे हैं। ऐसा नही है कि यह नई बीमारी पापुलिस्ट कहे जाने वाले लेखकों में ही है। खुद को कालजयीभाव का लेखक समझने वाले पापुलिज्म विरोधी भी मरे जा रहे हैं कि लोग उनका चेहरा पहचान लें। कुछ लेखकों, खासकर कवियों में यह बीमारी इतनी गहरी हो चुकी है कि लोग पीठ पीछे उनका नाम सुनते ही थू-थू करने लगते हैं। उनके सार्वजनिक कृत्यों से ऐसा लगता है जैसे कोई सुबह-दोपहर-शाम दिन-रात अपनी तस्वीर को चुम्मा दिए जा रहे है और फलस्वरूप उसके थूक से तस्वीर गील होकर फटती जा रही है लेकिन चूमने वाले को होश नहीं है कि वह तस्वीर का कागज तक चाट चुका है। 

यह बीमारी इतनी फैल चुकी है कि लेखकों के जुमले और तस्वीर के काकटेल को लोकप्रिय बनाने के लिए एजेंट रखे जाने लगे हैं। कुछ जेब से तंग दिल के अमीर लेखक मिलजुलकर आपस में एक-दूसरे के जुमले-तस्वीर फैला लेते हैं। कुछ को यह काम खुद ही खुद से अकेले करना पड़ता है। हिन्दी सोशलमीडिया इस तरह पापुलर बनाने का एक पूरा तंत्र तैयार हो चुका है। एक-दो लाइन के जुमले के साथ उससे 4-8-16 गुना बड़ी तस्वीर लगाकर उसे वायरल कराने का प्रयास किया जाता है। पहले किसी विषय पर आलेख प्रकाशित होता था तो उस विषय से जुड़ी तस्वीर फीचर इमेज के तौर पर लगायी जाती थी। जैसे- कार्ल मार्क्स पर लेख होगा तो मार्क्स की तस्वीर ऊपर लगी होगी। अब बुद्ध पर लेख लिखने वाले बबलू कुमार अपनी बड़ी सी तस्वीर के साथ उसे छपवाते हैं, शीर्षक होता है- बबलू कुमार की बाँकी नजर में बुद्ध के आड़े-तिरछे विचार! आज आप कह सकते हैं लेखक का चेहरा आज उसके लेखन और पाठक के बीच रोड़ा बन गया है। 

फोटो और वीडियो के आविष्कार के पहले लेखकों का काम केवल शब्दों से चल जाता था। उनका नाम ही उनका परिचय हुआ करता था। नाम पापुलर हो जाए, यही उनका इच्छा होती थी। ऐसे लेखक भी हुए जिनका वास्तविक नाम नहीं पता लेकिन उनके विचार अमर हो गये। ऐसे लेखक भी हैं जिनका नाम रह गया और उनकी रचना खो गयी, जैसे- स्वयम्भू। आज स्वयम्भू एक नकारात्मक विशेषण बन चुका है लेकिन कभी इस नाम के सम्मानित प्राकृत लेखक हुए थे। तकनीकी ने अपने प्रिय लेखकों को देखने-सुनने का सुख दिया लेकिन इस सच के नीचे यह सच दब नहीं जाएगा कि लेखक मूलतः पढ़ने-सोचने की चीज है। चेहरा कभी लेखन की पहचान नहीं बन सकेगा। लेखन ही चेहरे की पहचान होगा। लोकप्रिय लेखक की हवस से लोकप्रिय चेहरा बनने का अथक प्रयास अश्लील लगता है।  

लिपि के आविष्कार के बाद लेखन से नाम जोड़ना आसान हो गया। कागज के आविष्कार ने नाम के प्रचार को और आसान बनाया। छापेखाने के आविष्कार के बाद लोकप्रिय-नाम होना पहले से भी आसान हो गया। 20वीं सदी ने लोकप्रिय नाम के साथ लोकप्रिय चेहरा होना भी सम्भव कर दिखाया। 21वीं सदी ने सोशलमीडिया देकर इस पुरानी बीमारी को नया आयाम दे दिया। सोशलमीडिया से पहले व्यक्ति का नेम-फेस किसी कारण से पापुलर होता था या उसे पापुलर बनाने के लिए कारण खोजना पड़ता था। सोशलमीडिया के बाद पापुलर होना ही मूल कारण है जिसकी वजह से उस व्यक्ति के बाकी कार्यों का मूल्य है। सोशलमीडिया ने पापुलैरिटी को मुख्य गुण की तरह स्थापित किया है। बात लेखन जगत के सन्दर्भ में हो रही है तो उसका उदाहरण लेकर हम देख सकते हैं कि पापुलैरिटी को सोशलमीडिया ने क्या रूप दिया है। 

आप देख सकते हैं कि सोशलमीडिया पर जिन लेखकों के हजारों-लाखों फॉलोवर हैं उनकी किताबें कुछ सौ बिक जाएँ तो वो जयघोष करने लगते हैं।  कम से कम हिन्दी में लेखक अपनी किताबों की बिक्री का आँकड़ा सार्वजनिक करने में हिचकिचाते हैं। हिन्दी प्रकाशक भी पहले इसपर चुपचुप रहते थे। पिछले कुछ सालों में कुछ हिन्दी प्रकाशकों को मार्केंटिंग वालों का यह फण्डा अपना लिया  है कि 'बहुत बिक रहा है, बहुत बिक रहा  है' कहकर भी सामान बेचा जा सकता है। कुछ प्रकाशकों ने लेखक के साथ आपसी सहमति से (ताकि रायल्टी का मसला न उठे) बिक्री संख्या दोगुनी-चौगुनी बतानी शुरू कर दी! किताब छह हजार प्रति बिकी तो 10 हजार कॉपी बिकने का क्रिएटिव बनाकर शेयर करवा दी। शायद इसी वजह से सोशलमीडिया पर 'बहुत बिक रही है' के प्रचार के असर में आकर किसी किताब को खरीदने और पढ़कर मायूस होने वाले पाठकों की संख्या भी बढ़ने लगी है। 

आप देख सकते हैं कि सोशलमीडिया में पापुलैरिटी लेखक को सुपरसीड कर चुकी है। लेखक को लोग फॉलो तो करते हैं, उसके सोशलमीडिया कमेंट को तो पढ़ते हैं लेकिन उसके आधे या चौथाई फॉलोवर भी उसकी किताब खरीदकर नहीं पढ़ना चाहते। यह सच है कि किताब खरीदना क्रय-शक्ति से जुड़ा मामला है और सोशलमीडिया में फ्री में फॉलो किया जा सकता है लेकिन क्या हिन्दी लेखकों के फॉलोवरों 10-20 हजार ऐसे लोग नहीं है जिनकी हैसियत साल में हजार-पाँच सौ अपने प्रिय लेखक की किताब पर खर्च करने की हो! अगर ऐसा है तो लोकप्रिय होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाले लेखकों को इसपर सोचना चाहिए।   लोकप्रिय नेम के साथ पापुलर फेस बनने के लिए मरे जा रहे लेखकों पर इतना कहने के बाद उनपर भी कुछ कहना लाजिमी है जो अलोकप्रियता को ही गुणवत्ता की शिनाख्त मानते हैं। यह सच है कि ज्ञानरंजक साहित्य मनोरंजक लेखन से कम बिकता है। कविता-कहानी लेखन जगत की सबसे लोकप्रिय विधा हैं। प्रेमचन्द की कहानियाँ और उपन्यास जितने लोगों ने पढ़े होंगे उसके आधे लोगों ने भी शायद उनके वैचारिक आलेख नहीं पढ़े होंगे। कविता-कहानी लिखने वाले कई लेखक मनोरंजन के साथ थोड़ा ज्ञानरंजन भी करना चाहते हैं। ऐसे लेखकों के पाठक विशुद्ध मनोरंजन प्रदान करने वाले लेखकों से कम होते हैं। ऐसे लेखकों ने जिन्हें आम जबान में साहित्यिकार कहा जाता है, अपने पाठकों के लिए एक नया नाम ही गढ़ लिया- सुधी पाठक। ऐसा पाठक जो मनोरंजन के अलावा कुछ और सुध भी लेना चाहता है। जाहिर है कि सुधी पाठकों की संख्या सामान्य पाठकों से काफी कम होती है लेकिन वह इतनी भी कम नहीं होती जितनी हमारे कालजयीभाव वाले लेखक बताते हैं।

आपने गौर किया होगा कि हिन्दी में खुद को साहित्यकार बताने वाले ऐसे लेखक काफी संख्या में हैं जिनका दावा है कि उनकी किताबें नहीं बिकतीं क्योंकि हिन्दी पाठकों का टेस्ट खराब है! अपने बचाव में वो मनोरंजक लेखन करने वालों की बड़ी बिक्री संख्या दिखाकर कहते हैं देखो- लोग तो ये पढ़ते हैं! जाहिर है कि सामान्य पाठकों में कुमार विश्वास लोकप्रिय हैं लेकिन सुधी पाठकों के भी सेलिब्रिटी कवि हैं। कुमार विश्वास की किताब खरीदने वाले एक लाख पाठक हैं तो  धूमिल या दुष्यंत कुमार की किताब खरीदने वाले पाँच-दस हजार सुधी पाठक भी हैं। इसके बावजूद हमारे कालजयीभाव वले लेखकों की कविता/कहानी/उपन्यास की साल में केवल 25-50-120 प्रति बिकती है तो इसे ये सुधी पाठकों द्वारा मिला रिजेक्शन नहीं मानते! कुमार विश्वास के पाठक हमारे कालजयी कवि को क्यों नहीं पढ़ते यह सबको समझ में आता है लेकिन निराला-मुक्तिबोध-धूमिल-दुष्यंत को पढ़ने वाले पाठक भी कालजयीभाव वाले कवि को क्यों नहीं पढ़ते, यह भी कवि को छोड़ सबको समझ में आता है।

चलते-चलते यह कहना भी जरूरी है कि लेखन और लोकप्रियता का सम्बन्ध पूजा और प्रसाद जैसा है। बहुत से लोग प्रसाद के चक्कर में ही पूजा में आकर बैठ जाते हैं लेकिन प्रसाद खाने के लिए पूजा नहीं की जाती। पूजा पूरी किए बिना प्रसाद खाने की हड़बड़ी नासमझ बच्चों में पायी जाती है। परिपक्व वयस्कों में नहीं। लेखन ऐसा काम है कि आप अच्छे से करें तो लोकप्रियता देर-सबेर आपके पीछे-पीछे चलने लगती है। यदि आप इसका स्वाभाविक क्रम बदलकर नेम-फेस की लोकप्रियता के पीछे-पीछे चलकर कहीं जा रहे हैं तो आपको सोचना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं!  

आज इतना ही। शेष, फिर कभी। 

टॅग्स :हिंदी साहित्यहिन्दीरंगनाथ सिंह
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