DELHI News: ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ विषय पर परिचर्चा, लेखक जो लिखे उस पर वह भरोसा कर सके...

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: March 23, 2024 03:39 PM2024-03-23T15:39:11+5:302024-03-23T15:39:51+5:30

DELHI News: राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ की पांचवी कड़ी में ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ विषय पर परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही।

DELHI News Discussion topic hindi pathak ko kya pasand hai so that he can trust whatever the author writes rajkamal prakashan | DELHI News: ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ विषय पर परिचर्चा, लेखक जो लिखे उस पर वह भरोसा कर सके...

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Highlightsपाठक समाज किस तरह से देखेगा अथवा स्वीकार करेगा या नहीं। सूत्रधार की भूमिका राजनीतिक उपन्यासकार नवीन चौधरी ने निभाई।पाठकों द्वारा सर्वाधिक पसन्द की गई किताबों के बारे में बताया।

नई दिल्लीः पढ़ना भी एक कला है। लिखे हुए को समझने के लिए एक नज़र होना जरूरी है। अगर आप जिंदगी की नब्ज़ को अपने लेखन में ला पा रहे हैं तो आपका लिखा हुआ बहुत पढ़ा जाएगा। लेकिन हिन्दी का लेखक समाज पाठक की चाहना से बहुत डरा हुआ है। वर्तमान हालात को देखते हुए लेखक के लिए उसका उद्देश्य स्पष्ट होना बहुत जरूरी है कि वह अपने लेखन के जरिए समाज को क्या देना चाहता है। इसलिए हमारी प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने लेखन की तरफ होनी चाहिए। एक लेखक को इस बात से नहीं डरना चाहिए कि वह जो लिख रहा है उसे पाठक समाज किस तरह से देखेगा अथवा स्वीकार करेगा या नहीं। यह बातें राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ की पांचवी कड़ी में ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ विषय पर परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही।

इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर सभागार में आयोजित इस परिचर्चा में कथाकार-नाटककार हृषीकेश सुलभ, लेखक-पत्रकार गीताश्री, इतिहासविद् अशोक कुमार पांडेय और सम्पादक-आलोचक अविनाश मिश्र बतौर वक्ता मौजूद रहे। वहीं सूत्रधार की भूमिका राजनीतिक उपन्यासकार नवीन चौधरी ने निभाई।

सभा की शुरुआत करते हुए राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने विषय परिचय देते हुए पिछले दस वर्षों की अवधि में पाठकों द्वारा सर्वाधिक पसन्द की गई किताबों के बारे में बताया। इसके बाद विश्व पुस्तक मेला के दौैरान पाठकों की पसन्द को समझने के लिए राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा किए गए सर्वे से प्राप्त आँकड़े प्रस्तुत किए गए।

74 फीसदी पाठकों की पहली पसन्द छपी हुई किताबें

विश्व पुस्तक मेला में राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से किए गए इस सर्वे में कुल 4528 पाठकों की भागीदारी रही जिसमें ज्यादातर पाठक युवा वर्ग के थे। इसमें स्त्री पाठकों की संख्या 40 फीसदी से अधिक रही। इस सर्वे में शामिल 74 फीसदी पाठकों ने छपी हुई किताबों को अपनी पहली पसन्द बताया।

विधाओं से जुड़े सवाल पर 39 फीसदी पाठकों ने कथेतर विधा और 37 फीसदी पाठकों ने कथा-साहित्य को पहली पसन्द बताया है। वहीं किताबों के चयन से जुड़े सवाल पर 36 फीसदी पाठकों ने विषय के आधार पर और 28 फीसदी पाठकों ने लेखक के नाम के आधार पर किताब चुनने को पहली प्राथमिकता बताया। 

इसी तरह किताबें खरीदने के लिए 34 फीसदी पाठकों ने सबसे सुविधाजनक माध्यम पुस्तक मेलों को, 31 फीसदी पाठकों ने बुक स्टोर और 29 फीसदी पाठकों ने ऑनलाइन माध्यमों को बताया है। इससे पता चलता है कि ऑनलाइन माध्यमों के प्रचार-प्रसार के बावजूद ज्यादातर पाठक किताबों को सामने से देखकर, उन्हें छूकर ही खरीदना पसन्द करते हैं। सर्वे में शामिल पाठकों में से 42 फीसदी ने नई किताबों की जानकारी मिलने का माध्यम सोशल मीडिया को बताया है। 

लेखक समाज से नाराज़ हैं बहुत से पाठक

परिचर्चा की शुरुआत करते हुए ‘सभा’ के सूत्रधार नवीन चौधरी ने किताबों को लेकर वैश्विक स्तर पर वर्तमान के रुझान बताते हुए कहा कि इस समय दुनियाभर में कथेतर विधा की किताबें सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही हैं। उसके बाद धर्म और अध्यात्म, साइंस फिक्शन, रोमांटिक फिक्शन और सच्ची घटनाओं पर आधारित किताबों की मांग सबसे ज्यादा है।

विषय प्रवेश करते हुए उन्होंने कहा, “जब मैंने इस विषय पर चर्चा के लिए पाठकों से उनकी पसन्द के बारे में पूछा कि तो कई रोचक बातें निकलकर सामने आई। मुझे यह भी महसूस हुआ कि बहुत से पाठक लेखक समाज से नाराज़ है। ऐसा क्यों है यह हमें समझने की जरूरत है।”

पाठक की चाहना से डरे हुए हैं लेखक

कार्यक्रम के पहले वक्ता अशोक कुमार पांडेय ने कहा, “हिन्दी का लेखक समाज पाठक की चाहना से बहुत डरा हुआ है। कोई भी लेखक यह नहीं जानता कि उसका पाठक वास्तव में उससे क्या चाहता है! लेखन एक यात्रा है जो लेखक और पाठक दोनों को मिलाकर पूरी होती है। मुझे लगता है कि शायद पाठक लेखक से सिर्फ इतना चाहता है कि लेखक जो लिखे उस पर वह भरोसा कर सके।

यह हर तरह के पाठक की बेसिक जरूरत होती है।” उन्होंने कहा, “हिन्दी का लेखक अपने आप को जरूरत से ज्यादा एलीट समझने लगा है लेकिन वास्तव में वह जरूरत से ज्यादा पिछड़ा हुआ है। उसे लगता है कि मैं ही महान हूँ और मैं जो लिखता हूँ उसे केवल महान लोग ही समझ सकते हैं। इस तरह से वह खुद को सीमित कर रहा होता है। ऐसे में उसका लिखा हुआ भी समाज के किसी काम का नहीं होता।”

आगे उन्होंने कहा, “पुस्तक मेलों में हम देखते हैं कि कई लोग केवल तभी किताबें खरीदते हैं जब लेखक वहाँ मौजूद होता है और उसे लेखक के साथ सेल्फी लेनी होती है, उसे लेखक से ऑटोग्राफ लेना होता है। ऐसे लोग पाठक नहीं होते। पाठक वह होता है जिसे लेखक की मौजूदगी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उसे जो पढ़ना होता है, वह उसे खरीदता है और आगे बढ़ जाता है।”

वर्तमान में बदल गई है पाठक की परिभाषा

अविनाश मिश्र ने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया और ई-बुक्स के आने से पाठक की परिभाषा बहुत बदली है। अब उसे रीडर नहीं बल्कि एक यूज़र की तरह देखा जाता है क्योंकि इन प्लैटफॉर्म्स पर जो लोग आते हैं, वह सब पाठक नहीं होते। इसी तरह किताब खरीदने वाले सब लोग भी पाठक नहीं होते। बहुत से लोग अब किताबें इसलिए भी खरीदते हैं ताकि वह दिखा सकें कि उनके घरों में किताबें हैं। लेकिन मैं इसे उम्मीद भरी नज़र से देखता हूँ कि वह यूज़र कभी रीडर में भी बदलेगा।”

लेखक के लिए उसका उद्देश्य स्पष्ट होना जरूरी

बातचीत को आगे बढ़ाते हुए गीताश्री ने कहा, “कोई लेखक क्या लिख रहा है, यह पाठक तय नहीं कर सकता। जब लेखक कुछ लिख रहा होता है तो उसके सामने कोई नहीं होता, उस समय कोई दबाव उस पर नहीं होना चाहिए। उन्होंने मन्नू भंडारी को उद्धरित करते हुए कहा कि एक पाठक की भूमिका तब शुरू होती है जब किताब उसके हाथ में आ जाती है।”

उन्होंने कहा, “एक लेखकीय स्वायत्तता होती है जिसकी मैं हिमायती हूँ। हमारी प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने लेखन की तरफ है और उसी तरफ होनी चाहिए। हम देखते हैं कि आजकल राजनीति हर चीज पर हावी है। बच्चे भी राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय हैं। वह बड़े होने का इंतजार ही नहीं करना चाहते। ऐसे में लेखक के लिए उसका उद्देश्य स्पष्ट होना बहुत जरूरी है कि वह अपने लेखन के जरिए समाज को क्या देना चाहता है?”

बाजार साहित्यिक मूल्यों को तय नहीं कर सकता

पाठक की पसन्द पर बात करते हुए हृषीकेश सुलभ ने कहा, “दुनिया में पाठक इतनी तरह के हैं कि पाठक की पसन्द को सही-सही जान पाना और जानकर लिख लेना सम्भव नहीं है। लेकिन यह बातचीत बहुत जरूरी है क्योंकि इसके जरिए हम अपना मूल्यांकन कर सकते हैं। लेकिन मेरा संकट यह है कि पाठक क्या नहीं चाहता है? पाठक नहीं चाहता है कि लेखक बहुत ज्यादा बोलें।

पाठक चाहता है कि वह आपके लेखन में कुछ देखे तो उसे लगे कि वह ऐसा पहली बार देख रहा है। आपके लिखे में अगर चन्द्रमा का जिक्र आता है तो पाठक को लगे कि जैसे वह चन्द्रमा को पहली बार देख रहा है। वह यह सोचे कि इसे ऐसे भी देखा जा सकता है। अगर यह विश्वसनीयता लेखक अपने पाठक के साथ अर्जित करता है तो वह पाठक की चाहना को पूरा करता है और वही पढ़ा जाता है।”

उन्होंने कहा कि जिस तरह लेखन है वैसे ही पढ़ना भी एक कला है। कोई लेखक कितना पढ़ा जाता है या उसकी किताबें कितनी बिकती हैं यह सब साहित्य की गुणवत्ता पर निर्भर नहीं करता। बाजार के आँकड़े साहित्यिक मूल्यों को तय नहीं कर सकते। अगर आप जिंदगी की नब्ज़ को अपने लेखन में ला पा रहे हैं तो आपका लिखा हुआ बहुत पढ़ा जाएगा।

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