हिंदी पत्रकारिता: अभी दिल्ली दूर है
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 30, 2025 07:19 IST2025-05-30T07:18:41+5:302025-05-30T07:19:27+5:30
लखनऊ में हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में पत्रकारों के जमावड़े के बीच 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाने का फैसला हुआ. तब से अब तक हिंदी पत्रकारिता का जमीनी आधार बहुत मजबूत हो चुका है.

हिंदी पत्रकारिता: अभी दिल्ली दूर है
अरविंद कुमार सिंह
30 मई 1826 को बांग्लाभाषी कोलकाता से हिंदी का पहला अखबार ‘उदन्त मार्तण्ड’ 500 प्रतियों के साथ आरंभ हुआ. केवल 79 अंक निकले और इसका जीवनकाल एक साल सात माह रहा. 4 दिसंबर 1826 को यह बंद भी हो गया. 1976 में आपातकाल के दौरान जब इसके प्रकाशन को 150 साल हो रहा था तो लखनऊ में हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में पत्रकारों के जमावड़े के बीच 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाने का फैसला हुआ. तब से अब तक हिंदी पत्रकारिता का जमीनी आधार बहुत मजबूत हो चुका है.
हिंदी में नए अखबारों के साथ स्थापित अखबारों के नए संस्करण निकल रहे हैं. वेतन और सुविधाओं के मामले में हिंदी पत्रकारों की दशा पहले से बेहतर हुई है. इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के विस्तार के बावजूद हिंदी और भाषाई अखबारों का प्रसार बढ़ता जा रहा है. चैनलों और सोशल मीडिया के प्रवाह के बाद भी खबरों को विस्तार से जानने का सबसे भरोसेमंद साधन हिंदी और भाषाई अखबार ही बने हुए हैं. अधिकतर चैनल और सोशल मीडिया पर भी हिंदी और भारतीय भाषाएं ही मजबूत हैं.
आज देश में 350 से ज्यादा न्यूज चैनल हैं. वहीं पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओं की संख्या 1,44,520 हो चुकी है. अधिकतर अखबार हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के हैं. कोरोना महामारी के दौरान मीडिया पर जो प्रतिकूल असर पड़ा, उससे वह अभी उबर नहीं सका है, और दोबारा कोरोना दस्तक देने लगा है. पर तमाम चुनौतियों के बाद भी हिंदी मीडिया दिनोंदिन ताकतवर होता जा रहा है.
सूचना और संचार क्रांति के इस दौर में भी प्रिंट का महत्व बरकरार है. इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया के बड़ी ताकत के रूप में उभरने के बाद भी गांव-देहात तक प्रिंट इसलिए कायम है क्योंकि लोग खबरों की व्यापकता और सत्यता के लिए अगले दिन के अखबार का इंतजार करते हैं.
शब्दों का सौंदर्य, विचारों का विस्तार, पत्रकारिता की गंभीरता, अभिव्यक्ति की मर्यादा बाकी माध्यमों की तुलना में अखबारों के पन्नों पर कहीं अधिक प्रभावी रूप में दिखती है. सूचना और संचार क्रांति का फायदा अखबारों ने भी उठाया है और कई क्षेत्रीय अखबार इसी के चलते राष्ट्रीय अखबारों को प्रसार व ताकत में पीछे छोड़ चुके हैं.
आजादी के आंदोलन से लेकर सबसे लंबे दौर तक अखबार ही सबसे बड़ी ताकत बने रहे हैं. सारे बड़े नायकों ने आंदोलन में अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए विभिन्न भाषाओं में अखबार निकाला, जो छपाई में भले उन्नीस रहा हो लेकिन गुणवत्ता देखते ही बनती थी. पर तब अखबार ही शक्ति थे, अब मीडिया की दुनिया बहुत व्यापक हो गई है. फिर भी प्रिंट मीडिया एक हद तक अपनी गरिमा बनाए हुए है. पर सुप्रीम कोर्ट और कई राज्यों में हाईकोर्टों में हाल के सालों में इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर हेट स्पीच के मुद्दे पर गंभीर टिप्पणियां की गई हैं.
उनके भड़काऊ और उकसाने वाले कार्यक्रमों पर सवाल उठे हैं. पर गंभीर और भरोसेमंद पत्रकारिता अखबारों में हो रही है. अपनी शक्ति के कारण ही हिंदी विश्व में बोली जाने वाली तीसरी सबसे प्रमुख भाषा बन सकी है. अंग्रेजी और मंदारिन के बाद हिंदी का स्थान है. फिर स्पेनिश और फ्रेंच का.
पहले शिकायतें होती थीं कि हमारे नेता हिंदी में नहीं बोलते हैं, लेकिन अब चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे या लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी देश-विदेश में अपनी अधिकतम बातें हिंदी में ही रखते हैं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदी की गूंज सुनाई पड़ती है.
हिंदी पत्रकारिता का सफर अब करीब 200 सालों का हो गया है. अब सूचना और संचार क्रांति के इस दौर को ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक नया आयाम देने जा रहा है. इसका हमारी सृजनात्मक क्षमता और कल्पनाशीलता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. हम आगे केवल मशीन पर निर्भर होते हुए अपनी स्वाभाविक बुद्धि और कौशल खो न दें, इस पर गंभीर चिंतन करने का यह सबसे उपयुक्त समय है. क्योंकि केवल प्रसार के बढ़ते रहने मात्र से संतोष करने से बात नहीं बनेगी, तमाम मोर्चों पर हिंदी को काम करने की जरूरत है.