Haryana-Maharashtra Assembly Elections: किसको किसने कितनी रेवड़ियां बांटीं, यह सवाल भले ही किसी लंबी-चौड़ी गणना की अपेक्षा करता हो, पर यह बात सब मान रहे हैं कि हाल के चुनावों में खूब रेवड़ियां बंटीं. नहीं, मैं चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों द्वारा मतदाता को चुपचाप बांटे जाने वाले रुपयों की बात नहीं कर रहा, मैं बात उन रेवड़ियों की कर रहा हूं जिन्हें बांटने वाले लंबी-चौड़ी घोषणाओं के साथ बांटते हैं. चुनाव-परिणाम का विश्लेषण करने वाले जिस एक बात पर सहमत दिखाई देते हैं वह यह है कि इन रेवड़ियों ने परिणामों पर निर्णायक प्रभाव डाला है.
यह रेवड़ियां बांटना कोई नई बात नहीं है. शायद इसकी शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा राज्य की लड़कियों को साइकिलें बांटने से हुई थी. फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो बिजली, पानी आदि मुफ्त बांटकर जैसे एक नई परंपरा ही शुरू कर दी थी रेवड़ियां बांटने की. बिहार, ओडिशा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में तो यह काम प्रतिस्पर्धा की तरह हुआ.
ऐसा नहीं है कि इस ‘मुफ्तखोरी’ की आलोचना नहीं हुई. मतदाता को आर्थिक सहायता देने की इस प्रथा की आलोचना स्वयं प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हैं. शायद इस तरह मतदाता को रिझाने की कोशिश को रेवड़ियां बांटने की संज्ञा भी उन्होंने ही दी थी. यूं तो चुनाव घोषणापत्रों में जो वादे किए जाते हैं, उन्हें भी मतदाता को दी जाने वाली रिश्वत कहा जा सकता है, पर नगद राशि बांटने को किसी और तरह से नहीं समझाया जा सकता. रेवड़ियां बांटने वाले इस रिश्वत को कल्याणकारी राज्य के अनुरूप आचरण बताते हैं.
हम भले ही आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था बनने का दावा करते हों, पर इस हकीकत से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि आज हमारे देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को सरकार की ओर से मुफ्त अनाज देकर उसका पेट भरा जा रहा है. यह तथ्य यही बताता है कि गरीबी हटाओ के सारे दावों और वादों के बावजूद आज भी स्वतंत्र भारत का नागरिक अपने श्रम से अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने लायक नहीं बन पाया है. आजादी के शुरुआती सालों में तो यह बात फिर भी समझ आती थी कि नया देश नई चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है.
हालात सुधारने में वक्त लगेगा, पर आजाद होने के सत्तर-अस्सी साल बाद भी यदि देश की जनता रेवड़ियों से रिझाई जा सकती है तो इसका सीधा-सा मतलब यही है कि हमारी नीतियों-रीतियों में कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है. हमारी त्रासदी यह भी है कि गड़बड़ी का पता लगाने और उसे ठीक करने की ईमानदार कोशिश करने के बजाय हम रेवड़ियां बांटकर कर काम चलाना चाहते हैं.