विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: मीडिया की आजादी की रक्षा हर हाल में जरूरी
By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 6, 2018 03:24 PM2018-12-06T15:24:35+5:302018-12-06T15:24:35+5:30
जनतंत्न में पत्नकारिता का मूल चरित्न ही स्वस्थ और जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने वाला होना चाहिए।
जनतंत्न के चौथे स्तंभ पत्नकारिता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज में संवाद की स्थितियां पैदा करने का काम करेगी। पत्नकारिता से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह प्रतिपक्ष को मजबूत बनाने में सहयोग करेगी। यही नहीं, कहा तो यह भी जाता है कि जनतंत्न में पत्नकारिता का मूल चरित्न ही स्वस्थ और जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने वाला होना चाहिए। इसी सबको ध्यान में रखते हुए ही हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता के अधिकार के अंतर्गत पत्नकारिता और पत्नकारों को विशेष सुविधाएं और सुरक्षा देने की व्यवस्था की गई है।
यह सही है कि अमेरिका की तरह हमारे संविधान में इस स्वतंत्नता की रक्षा के लिए कोई पृथक या स्पष्ट प्रावधान नहीं है, पर संवैधानिक और पारंपरिक व्यवस्थाओं के चलते स्वतंत्न भारत में, कुल मिलाकर, पत्नकारिता के दायित्वों की पूर्ति के अवसरों और सुविधाओं का ध्यान रखा जाता है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर पिछले कुछ सालों में, देश में मीडिया की इस बहुमूल्य स्वतंत्नता पर अंकुश लगाने की कोशिशें होती रही हैं। सत्ता-संस्थानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की ऐसी कोशिशों का ही परिणाम है कि प्रेस सूचकांक की सूची में अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता की दृष्टि से विश्व के देशों में आज हमारा स्थान 138 वां है। पिछले साल तक हम 136 वें स्थान पर थे। यह जानकारी अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की ताजा रिपोर्ट में दी गई है। यही नहीं, आज हमारा देश उन चौदह देशों की सूची में है जहां पत्नकारों के हत्यारे मुक्त घूमते हैं।
निश्चित रूप से यह स्थिति और ये तथ्य भी मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष होंगे जब उसने मानहानि के एक मुकदमे पर फैसला देते हुए यह कहा था कि ‘यदि (जनतंत्न के) चौथे स्तंभ का गला घोंटा गया तो भारत एक नाजी देश बन जाएगा’।
अदालत में एक राष्ट्रीय पत्रिका के तमिल संस्करण के खिलाफ चलाए गए मानहानि के एक मुकदमे की सुनवाई हो रही थी। अदालत ने पत्रिका को आरोप-मुक्त किया है। अपने निर्णय में अदालत ने कहा है कि भारत एक जीवंत जनतंत्न है और चौथा स्तंभ इसका अपरिहार्य अंग है। यदि इस तरह चौथे स्तंभ की आवाज दबाई गई तो भारत तानाशाही का शिकार बन जाएगा ‘और हमारे स्वतंत्नता सेनानियों तथा संविधान-निर्माताओं की सारी मेहनत बेकार हो जाएगी’।
अदालत ने अपने फैसले में इस बात को भी रेखांकित किया है कि मीडिया की आवाज दबाई गई तो देश में जनतंत्न खतरे में पड़ जाएगा। अदालत ने यह कहना भी जरूरी समझा है कि अदालत अपने कर्तव्य-पालन में चूक जाएगी यदि वह ताकतवर सत्ता के ऐसे प्रयासों का विरोध नहीं करती।
इस निर्णय से अदालत ने तो अपने कर्तव्य की पूर्ति की, पर सवाल यह उठता है कि प्रेस की स्वतंत्नता की रक्षा का काम क्या केवल अदालत का है? क्या इस काम में समाज और सत्ता का कोई कर्तव्य नहीं बनता। हाल ही में मुंबई में पत्नकारों के एक संगठन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में यही सवाल उठा था और श्रोताओं ने तालियां बजाकर वक्ताओं की इस बात का समर्थन किया था कि जनतंत्न के इस चौथे स्तंभ की रक्षा के लिए ऐसे उस हर प्रयास को विफल बनाने की आवश्यकता है जो पत्नकारिता के अधिकारों और कर्तव्य-पूर्ति में बाधक बनते हैं।
दुर्भाग्य से ऐसे प्रयास बढ़ते जा रहे हैं। सत्ता-संस्थान और व्यावसायिक प्रतिष्ठान, दोनों स्वयं को प्रेस की नकेल से बचाए रखने के लिए हर तरह की कोशिशों में लगे हैं। प्रेस को धमकाने और खरीदने की कोशिशें आए दिन दिखाई देती हैं। सरकारें पत्नकारों को जानकारी पाने और समाज को आगाह करने के अधिकार से वंचित कर रही हैं और व्यावसायिक प्रतिष्ठान विज्ञापन पर रोक लगा कर या पत्नकारों पर मुकदमे चला कर अभिव्यक्ति और जानकारी पाने के जनतांत्रिक अधिकार की धज्जियां उड़ा रहे हैं। कुछ ही अर्सा पहले कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) ने अदालत से कहा था, ‘आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए ताकतवर बिजनेस समूह देश के कानूनों का गलत लाभ न उठाएं, यह न्यायपालिका को सुनिश्चित
करना है।’
लेकिन यह सुनिश्चित करने का काम पत्नकारों और पत्नकारिता का भी है कि अपने अधिकारों की रक्षा और अपने कर्तव्यों की पूर्ति के प्रति वे जागरूक रहें। जनतंत्न की रक्षा का तकाजा है कि मीडिया की स्वतंत्नता की रक्षा का हरसंभव प्रयास हो। जानकारी पाना मीडिया का अधिकार है, इस अधिकार की रक्षा होनी चाहिए। कुछ अर्सा पहले एक सरकार ने मंत्नालय में पत्नकारों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था।
यह तो अच्छा हुआ कि उसने विरोध को देखते हुए कदम वापस ले लिया, पर इससे यह तो पता चल ही जाता है कि हमारी सरकारें इस चौथे स्तंभ को कमजोर बनाने में लगी हैं। मुदकमे चलाकर व्यावसायिक घराने डरा रहे हैं। सारी कोशिशें मीडिया को कमजोर बनाने की हैं। मीडिया का ताकतवर होना जनतंत्न के अस्तित्व की एक शर्त है। यह पत्नकारों को, और समाज को देखना है कि यह शर्त कैसे पूरी हो। दांव पर हमारा जनतंत्न लगा है।