(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति हैं)
आजकल विभिन्न राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्न के सहारे देश की जरूरतों का आकलन कर अपनी-अपनी समझ को साझा कर रहे हैं. वादे ही सही, पर इस तरह की सामग्री देश की एक कल्पित आदर्श छवि जरूर प्रस्तुत करती है. सभी दल अपनी वरीयताओं के साथ जनता के सामने हाजिर हो रहे हैं और उसी के बल पर जनता का वोट मांगने की कवायद की जाती है.
अपनी खास विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए घोषणापत्न अंतत: समाज की भलाई के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दावा जाहिर करते हैं. लेकिन गौर से देखने पर इन घोषणापत्नों में स्त्रियां नदारद सी हैं. दूसरी ओर यदि देश के किसी कोने का कोई भी समाचार पत्न उठाएं तो स्त्रियों की अवहेलना, उनके साथ व्यभिचार, अत्याचार और हर तरह के अपराध की खबरें बढ़ती ही जा रही हैं. उनकी सुरक्षा और सम्मान ही नहीं उनके बुनियादी अधिकार भी प्राय: नजरअंदाज कर दिए जा रहे हैं.
कहना न होगा कि स्त्रियां देश की आजादी के आंदोलन में बड़ी संख्या में शामिल हुईं, जेल गईं, पर स्वतंत्नता मिलने के बाद उनकी स्थिति को गंभीरता से लेने की कोशिश नहीं हुई. कुछ थोड़ी सी महिलाएं जरूर आगे बढ़ीं, पर उनकी संख्या नगण्य ही रही. जीवन जीने की स्वतंत्नता प्रजातंत्न की कसौटी है. भारतीय स्त्नी को अपेक्षित सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी. उसे नाना प्रकार की हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है.
सच कहें तो आज भी अधिकांशत: नारी का जीवन पुरु ष केंद्रित ही बना हुआ है और उनको आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में गंभीर कोशिश नहीं हुई. स्त्नी की देह पर उस स्त्नी के अधिकार की भी रक्षा नहीं हो पा रही है. आज न तो उसके श्रम का ही सम्मान हो पा रहा है न ही उसे स्वाभिमान के साथ जीने का अवसर ही मिल पा रहा है. जनसंख्या में बड़ा अनुपात होने पर भी शिक्षा, नौकरी और राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी में स्त्रियों की उपस्थिति सीमित बनी हुई है. स्त्रियों के स्वास्थ्य, आहार और सुरक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों को पूरा करना भी कठिन हो रहा है.
यह एक अंतर्विरोध ही है कि इसके बावजूद कि स्त्नी के बगैर मानव की कोई भी मुकम्मल परिकल्पना पूरी नहीं हो सकती, वैश्विक स्तर पर सामाजिक जीवन में स्त्नी ज्यादातर हाशिए पर ही रही है. औपचारिक और अनौपचारिक हर तरह के स्थानों में स्त्रियों का शोषण अधिकाधिक प्रबल हो रहा है. आज भी संसद और विधानसभाओं में स्त्रियों का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना जरूरी है. यह गंभीर चिंता का विषय है.
इस बिंदु पर सभी राजनीतिक दलों से सवाल पूछे जाने की जरूरत है. स्त्रियां तभी सामथ्र्यवान होंगी जब उन्हें सभी क्षेत्नों में बराबरी के अवसर की गारंटी होगी. गांधीजी ने एक जीवित और सचेत समाज की कल्पना की थी. वे आवश्यकताओं को सीमित किए जाने की बात करते हैं. किंतु आज हर चीज को बाजार नियंत्रित कर रहा है. जेंडर समानता के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक चुनौतियों पर विचार किए जाने की जरूरत है.