ब्लॉग: जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर से रांची के पहाड़ी मंदिर तक...पर्यावरण संरक्षण के साथ देवोपासना के उदाहरण बन रहे देवालय!

By पंकज चतुर्वेदी | Published: June 20, 2023 02:54 PM2023-06-20T14:54:14+5:302023-06-20T14:54:14+5:30

मध्यप्रदेश के शाजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते. इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है. भारत के कई और मंदिरों से ऐसे ही उदाहरण सामने आ रहे हैं.

From Jaipur's Tadkeshwar Temple to Ranchi's Pahari Mandir, how our temples becoming examples of environmental protection also | ब्लॉग: जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर से रांची के पहाड़ी मंदिर तक...पर्यावरण संरक्षण के साथ देवोपासना के उदाहरण बन रहे देवालय!

ब्लॉग: जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर से रांची के पहाड़ी मंदिर तक...पर्यावरण संरक्षण के साथ देवोपासना के उदाहरण बन रहे देवालय!

यह परंपरा भी है और संस्कार भी, जयपुर के परकोटे में स्थित ताड़केश्वर मंदिर की खासियत है कि यहां शिवलिंग पर चढ़ने वाले पानी को नाली में बहाने के बजाय एक चूने के बने कुंड, जिसे परवंडी कहते हैं, के जरिये धरती के भीतर एकत्र किया जाता है. यह प्रक्रिया उस इलाके के भूजल के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है. 

यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम व्यय में शुरू किया जा सकता है. यदि दस हजार मंदिर इसे अपनाते हैं और हर मंदिर में औसतन एक हजार लीटर पानी प्रतिदिन शिवलिंग पर आता है तो गणित लगा लें हर महीने कितने अधिक जल से धरती तर रहेगी.

शायद इसी मंदिर से प्रेरणा पाकर जयपुर के ही एक ज्योतिषी और सामाजिक कार्यकर्ता पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले दो दशकों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जलसंरक्षण ढांचे का विकास किया है. समाजसेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए गौड़ को महाराणा मेवाड़ अवार्ड समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है. श्री गौड़ ने वर्ष 2000 में अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया. वे मंदिरों में 30 फुट गहरा गड्ढा बनवाते हैं और शिवलिंग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजार कर जमीन में उतारते हैं.  

ठीक ऐसा ही प्रयोग लखनऊ के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर में भी किया गया. यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक के बाद जल नालियों के बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है. यहां करीब 40 फुट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है जबकि दूध और पूजन सामग्री को अलग इस्तेमाल किया जाता है. बेलपत्र और फूलों को एकत्रित कर खाद बनाई जाती है. चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है. 

यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ते का निर्माण किया गया है. यहां चढ़े फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है. वहीं बेलपत्र और अन्य पूजन सामग्री को खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है.  

मध्यप्रदेश के शाजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते. इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है. मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मशहूर झंडेवालान मंदिर में भी हो रहा है.

इसके अलावा देवास, ग्वालियर, रांची के पहाड़ी मंदिर सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कंपोस्ट में बदला जा रहा है. अभी जरूरत है कि मंदिरों में पॉलीथिन थैलियों के इस्तेमाल, प्रसाद की बर्बादी पर भी रोक लगे. इसके साथ ही शिवलिंग पर दूध चढ़ाने के बजाय उसे अलग से एकत्र कर जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए.

Web Title: From Jaipur's Tadkeshwar Temple to Ranchi's Pahari Mandir, how our temples becoming examples of environmental protection also

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