अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: अफसोस! पेड़ किसी को वोट नहीं दे सकते

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 11, 2023 09:42 AM2023-08-11T09:42:35+5:302023-08-11T09:43:07+5:30

कार्बन पृथक्करण, पानी के संरक्षण, नदियों को बचाने, बाघों, हाथियों, पक्षियों और तितलियों सहित कईं अन्य स्तनधारियों और कीटों की रक्षा के लिए अधिक जंगल उगाने के लिए किए गए सभी प्रयासों को व्यर्थ करने में 2023 के संशोधन बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगे यह दुःखद प्रसंग है। 

forests are shrinking fast The damage caused by the loss of forests to the environment | अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: अफसोस! पेड़ किसी को वोट नहीं दे सकते

फोटो क्रेडिट- फाइल फोटो

यदि आप किसी भी पढ़े-लिखे या अशिक्षित व्यक्ति से भारत में पेड़ों और जंगलों के बारे में पूछेंगे तो आपको यही सुनने को मिलेगा कि जंगल तेजी से घट रहे हैं। देश में ज्यादातर लोग भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) द्वारा प्रकाशित होने वाली द्विवार्षिक भारत वन रिपोर्ट (आईएसएफआर) के बारे में नहीं जानते होंगे।

वे वनाच्छादित क्षेत्र, उसके वितान या उष्णकटिबंधीय कांटेदार वनों, उष्णकटिबंधीय अर्ध-सदाबहार वनों के फर्क या वनों के प्रकारों को परिभाषित करने में उपयोग किए जाने वाले तकनीकी शब्दजाल से अनभिज्ञ हो सकते हैं।

वैसे, भारत अपने हरे-भरे विविध प्रकार के वनों और समृद्ध जैव विविधता के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। हमारे पास 188 प्रकार के वन हैं लेकिन हम जल्द ही उन्हें खो सकते हैं।

लोग जो बात निश्चित रूप से जानते हैं, वह यह है कि जंगलों पर लगातार हमले हो रहे हैं, शहरों में पेड़ों को नियमित काटा जा रहा है और इससे तापमान व जलवायु परिवर्तन बढ़ रहा है। क्या सरकारें वास्तव में पेड़ों के बारे में चिंतित हैं? शायद नहीं...क्योंकि पेड़ वोट नहीं दे सकते!

कई अध्ययनों और अदालती आदेशों ने पेड़ों, घने जंगलों और उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली मूल्यवान पर्यावरण सेवाओं के महत्व को रेखांकित किया है। पर्यावरण का यह मूल्यांकन भारत में सर्वस्वीकृत है।

मेरे लिखने का उद्देश्य मौजूदा वन कानूनों - वन संरक्षण अधिनियम 1980, भारतीय वन अधिनियम 1927 और जैव विविधता अधिनियम 2002 - में संशोधन करने में अनुचित जल्दबाजी की ओर ध्यानाकर्षण करना है। नया विधेयक संसद में विशेषज्ञों और वैज्ञानिक की चिंताओं तथा विचारों को दरकिनार करते हुए पारित किया गया है। सदन में कोई भी विपक्षी सदस्य मौजूद नहीं था। ऐसे दूरगामी परिणाम वाले फैसले को राज्यसभा में दो घंटे से भी कम समय की बहस में मंजूरी मिल गई।

ऐसे समय में, जब जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता हमें प्रभावित कर रही है, यह एक प्रतिगामी कदम है। यह एकमात्र खतरा नहीं है बल्कि ‘निष्ठुर संशोधनों’ के माध्यम से सरकार और उद्योगों पर शर्तों के अनुपालन का बोझ भी कम किया जा रहा है. प्रमुख औद्योगिक घरानों की नजर जंगलों के बड़े हिस्से पर है।

एक बिरला कंपनी की नजर मप्र के बक्सवाहा में हीरे की खदानों पर थी लेकिन एनजीटी ने इस पर रोक लगा दी। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के प्राचीन जंगलों को पहले ही भारी झटका लग चुका है। प्रतिपूरक वृक्षारोपण (केम्पा) दिखावा मात्र रहा है। जिस क्षेत्र से पेड़ काटे गए थे, उसके आसपास लाखों की संख्या में पेड़ लगाने के लिए कैम्पा फंड का इस्तेमाल किया जाना था जो काम लगभग नगण्य है।

केंद्रीय वन मंत्री भूपेंद्र यादव ने यह कहते हुए संशोधनों का बचाव किया कि ‘मोदी सरकार पिछली कांग्रेस सरकारों की तुलना में वनों के संरक्षण में कहीं अधिक सफल रही’, फिर भी पर्यावरणविद् नाराज तो हैं और नाराजगी सही भी है। उनका कहना है कि यह कांग्रेस सरकार ही थी जिसने 1972 वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और वन अधिनियम 1980 भी बनाया था।

फिर यह भी देखिये कि यह कब हो रहा है? प्रतिष्ठित अमेजन जंगलों के आसपास के आठ देश सदियों पुराने जंगलों को बचाने के लिए इन दिनों विचार-मंथन कर रहे हैं।

ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा इस महत्वपूर्ण लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं और 2023 की शुरुआत में सत्ता में आने के बाद से उन्होंने लाखों पेड़ों को बचाया है. क्या उनसे हम कुछ प्रेरणा ले सकते हैं? याद रहे, सभी सरकारों द्वारा जंगलों पर हमला किया गया है. आदिवासी वोटों को लुभाने के लिए डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा वन (अधिकार) अधिनियम 2006 पारित किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप देशव्यापी हंगामा हुआ, लेकिन वर्तमान सरकार की तरह, कांग्रेस सरकार ने भी विरोध प्रदर्शनों पर ध्यान नहीं दिया और कानूनों को बदल दिया, जिससे जंगलों का विखंडन हुआ और उनकी कटाई भी हुई, आदिवासियों द्वारा या उनके नाम पर लकड़ी माफिया द्वारा
अंग्रेजों द्वारा बनाई गई एफएसआई वर्षों से जंगलों का मूल्यमापन कर रही है।

 हालांकि द्विवार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट (आईएसएफआर) 1987 में शुरू हुई थी। हर बार जब एफएसआई रिपोर्ट प्रकाशित करती है, तो यह आम आदमी की समझ के बाहर, जटिल तकनीकी तरीकों से वन क्षेत्र में ‘वृद्धि’ दिखाती है।

कुछ साल पहले दिल्ली में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के भारतीय वन सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे व्यक्तिगत रूप से बताया था कि जब तत्कालीन मंत्री को बताया गया कि देश में जंगलों में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, तो दक्षिण भारत के उस राजनेता ने स्पष्ट रूप से परेशान होकर फाइल फेंकते हुए अधिकारियों को डांटा और वन क्षेत्र में अधिक वृद्धि दर्शाने वाले आंकड़े को लाने को कहा. फिर वह काम एक सप्ताह के भीतर कर दिया गया!

हालांकि, ‘एफएसआई’ के आंकड़ों को चुनौती देना मुश्किल है, लेकिन सच्चाई यह है कि सभी प्रकार के जंगल मानवजनित दबाव में हैं। राजमार्ग के पुराने पेड़ों को बेरहमी से काटा जा रहा है; रेलवे और बिजली परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर जमीनों का हस्तांतरण किया जा रहा है. जैसे-जैसे शहरों का विस्तार होता है, सबसे पहले शहरी वृक्ष काटे जाते हैं।

कार्बन पृथक्करण, पानी के संरक्षण, नदियों को बचाने, बाघों, हाथियों, पक्षियों और तितलियों सहित कईं अन्य स्तनधारियों और कीटों की रक्षा के लिए अधिक जंगल उगाने के लिए किए गए सभी प्रयासों को व्यर्थ करने में 2023 के संशोधन बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगे यह दुःखद प्रसंग है। 

Web Title: forests are shrinking fast The damage caused by the loss of forests to the environment

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