खाद्यान्न की उपलब्धता के बावजूद भुखमरी का बढ़ना चिंताजनक, कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: October 26, 2020 04:20 PM2020-10-26T16:20:25+5:302020-10-26T16:20:25+5:30

इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक में 107 देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर है- पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से भी गिरी हालत में.  

food grains availability 7-8 month Eighty million poor increase starvation Krishna Pratap Singh's blog | खाद्यान्न की उपलब्धता के बावजूद भुखमरी का बढ़ना चिंताजनक, कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग

समस्या है कि वह खाये तो क्या खाये और किसी के पास इस सीमा तक सब कुछ भरा पड़ा है कि वह समझ नहीं पाता कि क्या-क्या खाये.

Highlightsआठ अंकों की यह तरक्की किसी संतोष का कारण नहीं बनती, क्योंकि तब भी उसका हाल उसके पड़ोसी देशों से बुरा था और अब भी है.2014 के उस स्थान से तो वह अभी भी बहुत दूर है, जो उसे मनमोहन सरकार के कामों से हासिल हुआ था. तब 76 देशों की सूची में वह 55वें स्थान पर था. अंकों की गणना की जाती है- अल्पपोषण, बच्चों के कद के हिसाब से उनका कम वजन, वजन के हिसाब से कम कद और बाल मृत्यु दर.

‘भारत पिछले सात-आठ महीनों से अपने अस्सी करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन दे रहा है और यह इस कारण संभव हो पा रहा है कि किसानों की कड़ी मेहनत से अनाजों के गोदाम भरे हुए हैं.’

प्रधानमंत्नी ने देशव्यापी लॉकडाउन के बाद से गत विश्व खाद्य दिवस तक अपने इस कथन को इतनी बार दोहराया है कि कई लोगों को यह बात भी गर्व का वायस लगने लगी है! हालांकि यह गर्व से ज्यादा चिंता की बात है. ये ऐसे गरीब हैं, जिनके निकट परिस्थितियां इतनी खराब हैं कि कड़ी मेहनत-मशक्कत के बावजूद वे अपने पेट नहीं भर पा रहे और उनकी मोहताजी के मद्देनजर सरकार को उनकी भूख  मिटाने की भी फिक्र  करनी पड़ रही है- कपड़े और मकान की तो बात भी कौन करे.  

1997 से 2002 तक राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन ने अपने कार्यकाल में पाया था कि खाद्यान्नों की इतनी प्रचुर उपलब्धता के बावजूद कोई देशवासी भूखा सोता है तो इसका अर्थ यह है कि उसके पास उन्हें खरीदने भर को क्र यशक्ति नहीं है. उनके इसी निष्कर्ष का प्रतिफल था कि बाद की सरकारों ने भूखे देशवासियों की क्र य शक्ति बढ़ाने के जतन तो किये ही, उन्हें खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने की दिशा में भी कई उल्लेखनीय कदम बढ़ाए. लेकिन अब हालत खराब हो चली है.

इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक में 107 देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर है- पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से भी गिरी हालत में.  गौरतलब है कि पिछले साल इस सूचकांक में भारत 102वें स्थान पर था. लेकिन आठ अंकों की यह तरक्की किसी संतोष का कारण नहीं बनती, क्योंकि तब भी उसका हाल उसके पड़ोसी देशों से बुरा था और अब भी है.

2014 के उस स्थान से तो वह अभी भी बहुत दूर है, जो उसे मनमोहन सरकार के कामों से हासिल हुआ था. तब 76 देशों की सूची में वह 55वें स्थान पर था. भाजपा सरकार आई तो 2015 में देश 80वें स्थान पर लुढ़क गया, 2016 में 97वें, 2017 में 100वें और 2018 में 103वें स्थान पर. जैसा कि हम जानते हैं, इन सूचकांकों में चार संकेतकों के आधार पर अंकों की गणना की जाती है- अल्पपोषण, बच्चों के कद के हिसाब से उनका कम वजन, वजन के हिसाब से कम कद और बाल मृत्यु दर.

फिलहाल इन चारों में से किसी भी संकेतक के आधार पर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं कहा जा सकता. कुल मिलाकर उसकी चौदह प्रतिशत आबादी अभी भी कुपोषित है और सूचकांक में भुखमरी की जो पांच श्रेणियां बनाई गई हैं- 0 से 9.9 अंक तक पहली, 10.0 से 19.9 अंक तक मध्यम, 20.0 से 34.9 तक गंभीर, 35.0 से 49.9 भयावह और 50.0 अति भयावह. इसके लिहाज से देश की भूख की समस्या को ‘गंभीर’ श्रेणी में रखा गया है.

दुष्यंत कुमार ने अरसा पहले अपने एक शेर में कहा था : भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेरे बहस यह मुद्दआ. विडंबना यह कि उनके इस संसार को अलविदा कहने के बाद भी इस ‘दिल्ली’ की रीति-नीति में कोई गुणात्मक या धनात्मक  परिवर्तन नहीं हुआ है. न ही उस व्यवस्था में, जो गैरबराबरी और शोषण पर आधारित है और जिसके चलते किसी देशवासी के विकल्प इतने सीमित हो गए हैं कि उसकी समस्या है कि वह खाये तो क्या खाये और किसी के पास इस सीमा तक सब कुछ भरा पड़ा है कि वह समझ नहीं पाता कि क्या-क्या खाये.

इसी के चलते संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में उत्पादित चालीस प्रतिशत खाद्यान्न व्यर्थ हो जाता है, जो मात्ना के लिहाज  से ब्रिटेन में हर साल उपयोग में आने वाले खाद्यान्न के बराबर है. दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के ही भोजन व कृषि संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में करोड़ों लोग हैं, जिन्हें दो वक्त का भोजन नसीब नहीं है और उनमें से ज्यादातर को भूखे ही सो जाना पड़ता है.

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