EVM: पिछले कुछ साल से ईवीएम को लेकर विपक्षी दलों का रवैया ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ कहावत की तरह है. अब ईवीएम विरोधी राग में अपना सुर उस कांग्रेस का नेतृत्व भी मिलाने लगा है, जिसके राज में ईवीएम के जरिये चुनाव होना शुरू हुआ. 2009 के आम चुनाव में पहली बार ईवीएम का इस्तेमाल शुरू हुआ. यह बताने की जरूरत नहीं कि उस चुनाव में 2004 की तुलना में कांग्रेस की अगुआई वाले राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए को बड़ी जीत हासिल हुई थी. तब ईवीएम पर भाजपा के तत्कालीन थिंक टैंक के कुछ लोगों ने कुछ वैसा ही आरोप लगाया था, जैसा आरोप आज कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष लगा रहा है. ईवीएम की बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग को लेकर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने को लेकर देशव्यापी यात्रा करने की बात कांग्रेस सोच रही है.
महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों के बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की पहली बैठक में कांग्रेस की महासचिव और नवनिर्वाचित सांसद प्रियंका गांधी ने जिस तरह ईवीएम का विरोध किया, उससे लगता है कि कांग्रेस ईवीएम को चुनाव प्रक्रिया से हटाने के लिए आखिरी लड़ाई लड़ने का मूड बना चुकी है.
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रियंका ने कहा कि हमें यह तय करना होगा कि बैलेट पेपर ही चुनाव का एकमात्र रास्ता है, कोई बीच का रास्ता नहीं है. अगर राहुल गांधी की सहमति मिली, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो तय है कि कांग्रेस ईवीएम के सवाल पर देशव्यापी अभियान पर निकल सकती है. ईवीएम विरोधी नैरेटिव में कांग्रेस का मददगार प्रगतिशील वामपंथी वैचारिक खेमा बड़ा सहयोगी है.
आम मतदाता और नागरिक विपक्षी हार के पीछे ईवीएम केंद्रित षड्यंत्र को स्वीकार नहीं कर पा रहा. ईवीएम विरोधी मानस बनाने की कोशिश केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के स्थापित होने के बाद शुरू हुई. दिलचस्प यह है कि मोदी के उभार के बाद ही कांग्रेस और उसका साथी विपक्ष मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और झारखंड की विधानसभाओं में जीत हासिल कर चुका है.
ईवीएम विरोधी नैरेटिव की शुरुआत के बाद पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी दो-दो, दिल्ली में केजरीवाल दो-दो चुनाव जीत चुके हैं और बिहार में 2015 का चुनाव भी भाजपा विरोधी खेमा जीत चुका है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के आंकड़े से तैंतीस सीटें पीछे रह गई.
ईवीएम विरोधियों के लिए लोगों को यह समझाना आसान नहीं लग रहा कि ईवीएम का अपने लिए इस्तेमाल करने वाली भाजपा आखिर खुद क्यों बहुमत से दूर हो गई? दरअसल इन्हीं तथ्यों की बुनियाद वह पेंच है, जिसकी वजह से ईवीएम विरोधी राष्ट्रव्यापी व्यापक माहौल नहीं बन पा रहा है.
अदालत को भी इस नैरेटिव को बढ़ावा देने की राह का सहभागी बनाने का प्रयास हुआ. महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों के बाद ईवीएम के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत में याचिका दायर कर दी गई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि यह भी कहा कि ईवीएम से जब विपक्ष जीतता है तो सवाल क्यों नहीं उठते. एक तरह से अदालत इस प्रक्रिया में भागीदार बनने से इनकार कर चुकी है.