स्वामी विवेकानंद ने कभी अपने संबोधन में कहा था कि सुख बांटने से दोगुना हो जाता है और दु:ख बांटने से आधा रह जाता है. जब हम अपने सुख को किसी पारिवारिक सदस्य, मित्र या संबंधी के साथ बांट कर उसका भोग प्राप्त करते हैं तब हमारा वह सुख दोगुना हो जाता है. इसी प्रकार जब कोई अपना हितचिंतक हमारे जीवन में आए हुए दु:ख को बांटता है तब हमारा दु:ख भी आधा रह जाता है. इसका पूरा दारोमदार संवेदना से जुड़ा है, जिसके पास जितनी अधिक वह उतने ही अच्छे तरीके से सुख या दु:ख बांट पाता है. पिछले चुनावों में हार-जीत पर उठते सवालों की स्थिति भी कुछ इसी तरह बन पड़ी है.
कांग्रेस ने चुनावों से लेकर मतदाता सूची में गड़बड़ी का मुद्दा उठाया. बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण(एसआईआर) से लेकर महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनावों तक पिछली पराजय का दु:खड़ा इतना रोया जा रहा है कि नए चुनावों को अप्रासंगिक तक कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है.
आश्चर्य इस बात का है कि दूसरों के गम में अपना गम बांटने वाले अपनी राजनीतिक स्थिति को समझ ही नहीं पा रहे हैं. दूसरी ओर जिनकी तरफदारी में उन्होंने अपना करियर न्योछावर किया है, वे मुंह तक खोलने के लिए तैयार नहीं हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 16 सीट जीतकर अपने गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसे मतदान में 12.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए.
वहीं शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट को 20 सीटें और दस प्रतिशत मत मिले. कांग्रेस का चुनावी इतिहास देखा जाए तो वह वर्ष 1990 के विधानसभा चुनाव के बाद कभी-भी तीन अंक का आंकड़ा हासिल नहीं कर सकी. वर्ष 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठन के बाद उसे गठबंधन सरकार ही बनाने पर मजबूर होना पड़ा.
उसकी सीटें 71 से 82 के बीच रहीं. वर्ष 2014 में सीटों की संख्या आधी रह कर 42 हो गई. कुछ यही हाल शिवसेना का रहा, जो वर्ष 1995 के अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 73 सीट को कभी दोहरा नहीं पाई. वर्ष 2014 से उसे नुकसान ही होता आया और नौबत 20 सीटों पर सिमटने की आ गई. हालांकि वर्ष 2024 के चुनावों में उसे पार्टी में फूट का सामना करना पड़ा.
उसे वर्ष 2009 के चुनावों में भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के बनने का नुकसान उठाना पड़ा था, जब उसकी सीटें 44 ही रह गई थीं. किंतु उस समय गठबंधन में उसके साथ भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) भी थी. इस बार उसके गठबंधन में कांग्रेस, राकांपा(शरद पवार गुट) भी थे. जिनमें से राकांपा भी फूट के बाद अलग चुनाव लड़ रही थी.
बावजूद इसके तीन दलों के पास अपने शीर्ष नेता थे. अटूट कांग्रेस को शीर्ष नेतृत्व और देश के संपूर्ण विपक्ष का साथ प्राप्त था. मगर परिणाम अपेक्षित नहीं रहे. नतीजों के बाद राकांपा ने पराजय को स्वीकार कर लिया, लेकिन कांग्रेस हार पचा नहीं पाई. उसने खोजबीन आरंभ की. जिसमें उसे मतदाता सूचियों में गड़बड़ी नजर आई.
भविष्य को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की सोच सही थी, लेकिन उसकी चिंता का विस्तार कुछ क्षेत्रीय दलों ने अपनी जिम्मेदारी मान ली. अब स्थितियां यह हो चली हैं कि राज्य में कांग्रेस से अधिक शिवसेना ठाकरे गुट और मनसे चुनाव प्रक्रिया से लेकर मतदाता सूची तक - सभी को लेकर परेशान हैं.
मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने अपनी पार्टी के सम्मेलन में सवाल उठाया कि संगमनेर से हमेशा सत्तर-अस्सी हजार मतों से जीतने वाले बालासाहब थोरात दस हजार मतों से कैसे हार सकते हैं? लोगों ने उन्हें मतदान किया, मगर कहां गायब हो गया? चुनावी राजनीति में अनेक प्रसंग सामने आते हैं, जिनमें हार या जीत अप्रत्याशित रूप से दर्ज की जाती है.
कांग्रेस और भाजपा के अनेक दिग्गज नेता पराजय का मुंह देख चुके हैं. मराठवाड़ा में अनेक बार के सांसद रावसाहब दानवे को लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. किंतु उनकी पराजय के बाद मतदाता या चुनाव प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठाए गए. एक नाकामी के आगे अगले चुनाव के बारे में सोचा और विजय को हासिल किया गया.
शिवसेना ठाकरे गुट और मनसे अपनी पराजय के कारणों पर अधिक मंथन करने की बजाय कांग्रेस के एजेंडे को आगे बढ़ाने में ज्यादा परिश्रम कर रहे हैं. शिवसेना के समक्ष फूट के बाद संगठन को मजबूत करने की आवश्यकता है, जिसके माध्यम से ही मतदाता को पहचाना जा सकता है. उसे समझाया जा सकता है. केवल पराजय के कुछ कारणों को ढूंढ़कर हारे उम्मीदवारों के साथ उनका दु:ख बांटा जा सकता है.
बीते चुनावों में एकजुट शिवसेना हो या मनसे, दोनों का ग्राफ नीचे आया है. दोनों ने भाजपा के साथ गठबंधन से लेकर समर्थन तक किया है, किंतु पार्टी की सीटों में बढ़ोत्तरी नहीं हो पाई. संभव है कि पराजय के कारणों पर सही मंथन और उनका निदान नहीं हुआ हो. अब नए चुनाव सिर पर हैं, जिन्हें चुनाव आयोग को कोसने का झुनझुना पकड़कर जीता नहीं जा सकता है.
विचार योग्य यह भी है कि जब कांग्रेस के भीतर महाविकास आघाड़ी में मनसे को लिए जाने का खुला विरोध हो रहा हो, तब कांग्रेस की पराजय के प्रति सहानुभूति जता कर क्या हासिल किया जा सकता है. वहीं शिवसेना और मनसे के पतन के कारणों पर क्या कांग्रेस टिप्पणी करेगी या खुलकर सहानुभूति जता सकती है?
कांग्रेस और राकांपा दोनों के लिए यह संभव नहीं है. हालांकि दोनों को शिवसेना और मनसे के मतों की आवश्यकता है. बीते लोकसभा चुनाव के परिणाम यही संकेत देते हैं. वर्तमान समय में स्थानीय निकायों के चुनाव सिर पर हैं और जिनमें निचले स्तर पर गठबंधन बने रहने की संभावना कम ही रहती है. ऐसे में कोशिश अपना घर संभालने की होनी चाहिए. अपनी परेशानी का निराकरण स्वयं करना चाहिए. गठबंधन में दु:ख बांटने के प्रयास एकतरफा नहीं, बल्कि दोनों तरफ से दिखने चाहिए.