डॉ. शिवाकांत बाजपेयी का ब्लॉग: फैसले से साबित हुआ कि पुरातत्व आज भी खरा है
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: November 10, 2019 06:22 AM2019-11-10T06:22:50+5:302019-11-10T06:22:50+5:30
उपरोक्त निर्णय इस बात का उदाहरण है कि पुरातत्व की खुदाइयों का इस प्रकार से भी उपयोग किया जा सकता है और पुरातात्विक प्रमाणों को न्यायिक साक्ष्य के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है.
वैसे तो इतिहास एवं पुरातत्व अपने आप में एक रोचक तथा अनूठा विषय है जो प्राय: सभी को आकर्षित करता है और स्वयं पर गर्व करने का मौका भी प्रदान करता है. किंतु यह किसी अदालती आदेश पर किसी अत्यंत जटिल और देश की दिशा निर्धारित करने वाले मसले को हल करने में भी सहायक हो सकता है, इसकी कल्पना किसी को नहीं थी. पुरातात्विक साक्ष्यों ने यह कर दिखाया क्योंकि पुरातत्व इतिहास से भिन्न मूलत: विज्ञान है जिसमें अनेक वैज्ञानिक नियमों एवं प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है. इनमें इतिहास जैसे किस्से-कहानियां नहीं होते किंतु इतिहास के उन किस्से-कहानियों को प्रामाणिक सिद्ध करने की ताकत अवश्य होती है, जो सच में हुए होते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या मसले पर दिए गए अपने निर्णय में पुरातात्विक उत्खनन को महत्वपूर्ण आधार माना है और इस तथ्य को स्वीकार किया है कि पुरातात्विक प्रमाणों की अनदेखी नहीं की जा सकती. इस निर्णय के चलते देश में प्राचीन धरोहरों की देख-रेख करने वाली शीर्षस्थ संस्था भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अचानक पुन: चर्चा में आ गई है. वैसे तो मीडिया से दूर रहने वाली यह संस्था उस समय भी चर्चा में आई थी जब इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने मार्च 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को विवादित स्थल पर उत्खनन कराने का आदेश दिया था. अदालत के आदेश पर विवादित स्थल पर कराए गए उत्खनन की रिपोर्ट हाईकोर्ट में जमा की गई थी.
उल्लेखनीय है कि अदालत के आदेश पर मार्च 2003 में प्रसिद्ध पुराविद डॉ. बी. आर. मणि के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के उत्खनन दल ने पक्षकारों-वकीलों तथा प्रेक्षक के रूप में तैनात दो जजों की विशेष उपस्थिति में उत्खनन प्रारंभ किया था. इसमें प्राथमिक रूप से कुल 14 पुरातत्व विशेषज्ञ शामिल थे तथा कालांतर में इन विषय विशेषज्ञों की संख्या 50 तक पहुंच गई थी. उस समय कोर्ट रिसीवर तत्कालीन मंडलायुक्त रामशरण श्रीवास्तव थे.
यह उत्खनन अस्थायी मंदिर के समीपवर्ती 10 फुट क्षेत्न को छोड़कर प्रारंभ किया गया गया था जो 7 अगस्त 2003 तक चलता रहा जिसका नतीजा अब सबके सामने है. उपरोक्त निर्णय इस बात का उदाहरण है कि पुरातत्व की खुदाइयों का इस प्रकार से भी उपयोग किया जा सकता है और पुरातात्विक प्रमाणों को न्यायिक साक्ष्य के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है. यह न केवल हमारे देश के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण है. इसी क्रम में मुझे एक अन्य वाकया भी याद आ रहा कि कुछ वर्षो पूर्व छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हत्या कर जमींदोज कर दिए गए कंकालों की बरामदगी के लिए पुरातत्वविदों की मदद ली गई थी और पुरातात्विक उत्खनन की विधा का इस्तेमाल कर सही-सलामत कंकाल भी बरामद किए गए थे.
उपरोक्त तथ्यों से यह लगता है कि पुरातत्व का उपयोग केवल अतीत पर गर्व करने के लिए ही नहीं बल्कि जटिल मसलों के हल के लिए भी किया जा सकता है. हालांकि इस पर पर्याप्त बहस की जा सकती है किंतु आज तो पुरातत्व सर्वोच्च न्यायालय की कसौटी पर भी खरा उतरा जिससे इस विषय की महत्ता और बढ़ेगी तथा इसके विविध अनछुए आयामों का भी विस्तार होगा.