महाराष्ट्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी(भाजपा), शिवसेना(शिंदे गुट) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(अजित पवार गुट) का कोई नेता पार्टी में नेताओं की आवाजाही पर कोई टिप्पणी करे तो उसे आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है. यदि राज्य के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे स्वयं टूट-फूट की शिकायत लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने पहुंच जाएं तो उसे किस रूप में लिया जाना चाहिए? हालांकि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिंदे अपने हर दूसरे भाषण में तीन साल पहले शिवसेना के विभाजन की याद दिला जाते हैं. उनका कहना है कि वह डॉक्टर नहीं हैं, लेकिन ‘ऑपरेशन’अच्छी तरह से करते हैं.
यही तीनों वे राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान अपने उम्मीदवारों का आदान-प्रदान किया था. मुंबई की भाजपा की पुरानी नेता शाइना एनसी उसी क्रम में शिवसेना के शिंदे गुट से चुनाव लड़ कर पराजित हुई थीं. स्पष्ट है कि राज्य की राजनीति में टूट-फूट पर कोई रोक-टोक नहीं है. उसको लेकर किसी किस्म का समझौता नहीं है.
फिर भी आने-जाने पर चिंता करना भविष्य के खतरे को भांपने से अधिक कुछ नहीं है. किंतु इस स्थिति के निर्मित होने के कारणों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. राज्य में लंबे अंतराल के बाद स्थानीय निकाय चुनावों का मुहूर्त निकला है. कुछ क्षेत्रों में एक कार्यकाल से अधिक समय बाद निर्वाचन प्रक्रिया आरंभ हुई है.
इस अवधि में राज्य के राजनीतिक समीकरणों में अत्यधिक परिवर्तन देखा गया है. वर्ष 2019 से लेकर वर्ष 2024 तक प्रदेश स्तर पर इतनी अधिक राजनीतिक उथल-पुथल सामने आई कि निचले भागों में नेताओं और कार्यकर्ताओं के समक्ष पहचान का संकट पैदा हुआ. वर्ष 2024 में महागठबंधन की सरकार की वापसी पर कुछ स्थायित्व देखा गया.
नेताओं को अपनी पहचान बताने का स्पष्ट अवसर दिखने लगा. इसी के बीच स्थानीय निकायों के चुनाव अपेक्षित थे, जिनका बिगुल आखिरकार बज ही गया. जैसा तय था कि काफी समय तक जमीनी कार्यकर्ताओं को अपने क्षेत्र से प्रतिनिधित्व का अवसर नहीं मिल पाया, इसलिए उनकी महत्वकांक्षा कुछ अधिक रूप से सामने आएगी. वैसा ही हुआ.
हर दल के सामने अपने कार्यकर्ताओं को संभालना कठिन बन पड़ा. पहले गठबंधन, फिर दल और क्षेत्रीय राजनीति का संतुलन मुश्किल ही था. जिसमें आवाजाही के अलावा कोई विकल्प नहीं था. जिसे विधानसभा चुनाव में अन्यथा नहीं लिया गया था. किंतु इन चुनावों में बात बिगड़ने लगी, जिसकी वजह साफ है कि किसी को राज्य की सत्ता की अगली सीट पर बैठना है तो किसी को पीछे बैठना बर्दाश्त ही नहीं है. भले ही वह उसकी क्षमता के बाहर की स्थिति क्यों न हो. देश में भाजपा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है.
किंतु वह क्षमता अनुसार कदम बढ़ती है. वह पंजाब में अकाली दल के साथ सालों पीछे की सीट पर बैठी रह सकती है. वह बिहार में आगे रहकर भी जनता दल यूनाइटेड को अपने साथ बैठाती जा रही है. मगर महाराष्ट्र में उसके इरादे अलग हैं. वह गठबंधन सरकार के सिद्धांतों का पालन करना चाहती है, लेकिन अपनी स्थिति का आंकलन कम नहीं करना चाहती है.
यदि वह लाभ की स्थिति में है, तो वह उसका पूरा दोहन करना चाहती है. जिसके लिए वह गठबंधन में भी रहकर स्वयं को अलग दल मानती है. यह चिंता छोटे दलों की है. विशेष रूप से शिवसेना शिंदे गुट इसी परेशानी के दौर से गुजर रहा है. वह अभी यह माने बैठा है कि भाजपा ने जितनी आसानी से शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया था, उतनी ही नरमी के साथ वह आगे भी उसके साथ पेश आएगा.
राज्य में चल रही टूट-फूट के बीच मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का कहना कि शुरुआत किसने की या फिर दिल्ली की मुलाकात के बाद भी आवाजाही का न थम पाना कुछ हद तक सीधा संदेश है, जिसे स्वीकार करना होगा. राज्य में भाजपा की कमजोरी निचले स्तर पर कमजोर संगठन के चलते स्थानीय निकायों में वर्चस्व न होना रही है.
गठबंधन के बावजूद सालों-साल शिवसेना ने उसे कभी आगे नहीं आने दिया है. अब विभाजित स्वरूप में शिवसेना की अपनी कमजोरियां हैं, जिनका लाभ लेकर भाजपा के समक्ष अभी नहीं तो कभी नहीं की स्थिति है. यूं भी अपनी सत्ता वाले राज्यों में स्थानीय निकायों के सभी स्तरों तक भाजपा ने कब्जा जमाया हुआ है.
महाराष्ट्र में दस साल से अधिक समय सत्ता में रहने के बावजूद निचले स्तर पर पकड़ नहीं बन पाना चिंता का विषय है. इस बार पार्टी आलाकमान से लेकर जिला स्तर तक आगे निकलने की तैयारी है. चूंकि जोड़-तोड़ में जितनी महारत भाजपा के पास है, उतनी शिवसेना शिंदे गुट के पास नहीं है. यही समस्या की जड़ है.
भाजपा किसी भी दल के नेता को साथ लेने में संकोच नहीं करती है, चाहे वह अपने सहयोगी का ही क्यों न हो! हालांकि यही परिपाटी शिवसेना शिंदे गुट ने भी अपनाई है, लेकिन दीर्घकाल में उसे अपनी क्षमताओं का अंदाजा है. इस स्थिति में एक-दूसरे से अपेक्षा करना गलत ही है. यदि दूसरे दल का कोई नेता-कार्यकर्ता स्वयं दल-बदल करता है तो उसमें अधिक आपत्ति दर्ज नहीं की जाती है,
लेकिन यदि किसी एक नेता या उम्मीदवार को अचानक अपनी तरफ खींच लिया जाता है तो उसे विवाद का केंद्र बना लिया जाता है. यानी टूट चल सकती है, फूट को स्वीकार नहीं किया जाएगा. इस सिद्धांत को वर्तमान दौर की राजनीति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. टूट-फूट के मामले में सभी दल एक समान ही हैं.
जिसको अवसर मिलता है, वह अपना शिकार कर लेता है. अब आवश्यक यही है कि नए दौर की राजनीति को समझने और समझाने का प्रयास किया जाए. अवसरवादिता से आगे यह एक नया मोड़ है, जो आसानी से पचाया नहीं जा सकता, मगर उसके बगैर रहा भी नहीं जा सकता है.