जब वरिष्ठ भाजपा नेता विजय कुमार मल्होत्रा को ‘ना’ की चुकानी पड़ी थी कीमत...
By हरीश गुप्ता | Updated: October 8, 2025 05:15 IST2025-10-08T05:15:47+5:302025-10-08T05:15:47+5:30
विजय मल्होत्रा ने मना कर दिया. वजह? वे राजधानी के करीब ही रहना चाहते थे - उत्तर प्रदेश, पंजाब या राजस्थान तो चलेंगे, लेकिन केरल नहीं.

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वरिष्ठ भाजपा नेता विजय कुमार मल्होत्रा, जिनका 93 वर्ष की आयु में निधन हो गया, पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. अपनी अलग सोच रखने वाले मल्होत्रा अक्सर तयशुदा रणनीति के अनुसार काम करने से बचते थे और इसकी राजनीतिक कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. 2014 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने राज्यपाल पद के लिए वरिष्ठ नेताओं की एक सूची तैयार की. मोदी ने मल्होत्रा की सराहना की. इन नामों में केसरी नाथ त्रिपाठी, कैलाश जोशी, बलराम दास टंडन, राम नाईक और वीके मल्होत्रा शामिल थे. राम नाईक को उत्तर प्रदेश का राज्यपाल चुना गया,
जबकि मल्होत्रा को केरल का राज्यपाल बनाया गया. दिल्ली के केरल हाउस में एक प्रेस वार्ता में शीला दीक्षित के केरल के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने के बाद, यह एक सम्मानजनक पद-वृद्धि लग रही थी. लेकिन मल्होत्रा ने मना कर दिया. वजह? वे राजधानी के करीब ही रहना चाहते थे - उत्तर प्रदेश, पंजाब या राजस्थान तो चलेंगे, लेकिन केरल नहीं.
इस एक फैसले की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी. सूची में शामिल अन्य लोगों को राजभवन में स्थानांतरित कर दिया गया लेकिन मल्होत्रा को नजरअंदाज कर दिया गया. बाद में उन्हें अखिल भारतीय खेल परिषद (एआईसीएस) का अध्यक्ष बना दिया गया, जो खेल मंत्रालय की एक सलाहकार संस्था है - एक सम्मानजनक पद, लेकिन उस शक्ति और प्रसिद्धि से कोसों दूर, जो उन्हें कभी हासिल थी.
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के समकालीन मल्होत्रा दशकों तक दिल्ली में भाजपा का चेहरा रहे, कई बार विधायक, सांसद और राजधानी में पार्टी अध्यक्ष रहे. फिर भी, दिल्ली के अपने आरामदायक दायरे से आगे बढ़ने की उनकी अनिच्छा उनके करियर का निर्णायक मोड़ बन गई. राजनीति की कठोर दुनिया में, मल्होत्रा की कहानी याद दिलाती है कि कभी-कभी ‘ना’ कहना गुमनामी का सबसे छोटा रास्ता होता है.
विश्वगुरु बनने का सपना और...
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी समारोह में, सरसंघचालक मोहन भागवत ने जो भाषण दिया, उसमें मोटे तौर पर सरकार की नीतियों और शासन का समर्थन किया, लेकिन उनके शब्दों में एक खामोश झिड़की भी थी - खासकर आर्थिक असमानता और सामाजिक अलगाव पर. भागवत ने कहा कि भारत ‘विश्वगुरु’ बनने का सपना तो देख रहा है,
लेकिन वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में कई खामियां साफ दिखाई दे रही हैं. उन्होंने आगाह किया, ‘असमानता बढ़ रही है; आर्थिक शक्ति कुछ ही हाथों में केंद्रित है. अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है.’ उनकी यह टिप्पणी हुरुन की नवीनतम रिच लिस्ट के एक दिन बाद आई है जिसमें बताया गया है कि 1,687 भारतीयों के पास भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आधे के बराबर संपत्ति है -
यह आंकड़ा भागवत द्वारा दी गई चेतावनी को ही रेखांकित करता है. हालांकि यह संदेश वैश्विक संदर्भ में था, लेकिन यह स्पष्ट रूप से घरेलू था. आरएसएस प्रमुख कह रहे थे कि ‘भारत का उत्थान’ कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के कंधों पर नहीं हो सकता, और इसका आर्थिक मॉडल उन लाखों लोगों तक पहुंचना चाहिए जो पीछे छूट गए हैं.
परोक्ष प्रश्न यह था कि क्या सरकार इस सलाह पर ध्यान देगी या राष्ट्रीय संसाधनों को अपने चहेते कॉर्पोरेट घरानों को सौंपती रहेगी? भागवत ने बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में अशांति का भी जिक्र किया - और इसे शासकों और शासितों के बीच बढ़ती दूरी से जोड़ा. इसका निहितार्थ नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
जब तक शासन उत्तरदायी और समावेशी नहीं रहेगा, तब तक सबसे शक्तिशाली शासन भी अपने लोगों से अलग-थलग पड़ने का जोखिम उठाते रहेंगे. उनकी टिप्पणियों को सरकार को अपने विकास मॉडल को नये सिरे से जांचने और उसे और अधिक समावेशी बनाने के लिए एक परोक्ष संकेत के रूप में देखा जा सकता है.
मंत्री के नवाचारी उपदेश से नौकरशाही में रोष
केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने हाल ही में हलचल मचा दी है - नई पहलों की घोषणा करके नहीं, बल्कि भारत की नौकरशाही पर निशाना साधकर. सिंह ने राज्यों पर विज्ञान विभागों को ‘कूड़ाघर’ समझने का आरोप लगाया और कहा कि ज्यादातर आईएएस अधिकारी ऐसी नियुक्तियों को सजा समझते हैं.
उन्होंने कहा, ‘नवाचार प्राथमिकता में नहीं है’ और भारत के खराब नवाचार रिकॉर्ड के लिए सीधे तौर पर नौकरशाहों को जिम्मेदार ठहराया. लेकिन सिंह ने जो चेतावनी देने की कोशिश की थी, उसे नौकरशाही ने सिर्फ उंगली उठाने से ज्यादा कुछ नहीं समझा. वरिष्ठ अधिकारी निजी तौर पर तर्क देते हैं कि मंत्री के शब्द उपदेश देने के समान हैं,
और वे असल मुद्दे को संबोधित नहीं करते - भारत का अनुसंधान एवं विकास में निवेश बेहद कम है, जीडीपी का सिर्फ 0.6-0.7 प्रतिशत, जो चीन (2.4%), अमेरिका (3.5%) और इजराइल (5.4%) के मुकाबले बेहद कम है. एक अधिकारी ने पलटवार करते हुए कहा, ‘नवाचार उपदेशों से नहीं चलाया जा सकता. धन, कर्मचारियों या मिशन-मोड समर्थन के बिना, राज्य कैसे काम कर सकते हैं?’
अधिकारी यह भी सवाल उठाते हैं कि विज्ञान विभागों की सहायता के लिए कोई विशेष बजट, प्रोत्साहन या संस्थागत जुड़ाव क्यों नहीं हैं. उनका कहना है कि कर्मचारियों की कमी और पुरानी प्रयोगशालाओं के साथ, उत्साह स्वाभाविक रूप से कम है. एक अन्य ने टिप्पणी की, ‘जिम्मेदारी किसी और पर डालने से जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी.’ नीति विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि सिंह के इस बयान से नीति निर्माताओं और कार्यान्वयनकर्ताओं के बीच विश्वास की खाई और चौड़ी होने का खतरा है.
एक विश्लेषक ने कहा, ‘नवाचार के लिए ऊपर से नेतृत्व की जरूरत होती है, नीचे से उपदेश देने की नहीं.’ व्यवस्था में कई लोगों के लिए, सिंह की टिप्पणियां एक जाना-पहचाना पैटर्न दर्शाती हैं: जब नतीजे कमजोर पड़ते हैं तो नीतिगत कमियों का सामना करने के बजाय नौकरशाही को दोष देने की प्रवृत्ति होती है.
और अंत में
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा गायक जुबिन गर्ग को श्रद्धांजलि देते समय भावुक हो गए, उन्होंने दिवंगत कलाकार के पालतू कुत्तों का एक वीडियो पोस्ट किया, जिसमें वे उन्हें आखिरी बार देख रहे थे और कहा, ‘कुत्ते मनुष्य के सबसे अच्छे दोस्त होते हैं - और अगर कुत्ते आपसे प्यार करते हैं, तो आप एक महान व्यक्ति हैं.’
वाकई दिल को छू लेने वाले शब्द. लेकिन सरमा के मुंह से निकलने पर वे भावनाओं को छूने से ज्यादा व्यंग्यात्मक लगते हैं. ये वही नेता हैं जिन्होंने कभी राहुल गांधी के अपने पालतू पिडी के प्रति स्नेह का मजाक उड़ाया था, और यहां तक दावा किया था कि उसी थाली में कुत्ते के बिस्कुट परोसे जाने से ‘अपमानित’ होने के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी.
अब वो शख्स, जो कभी कुत्तों की वफादारी पर व्यंग्य करता था, इस बारे में दार्शनिक बन गया है. सरमा की दुनिया में, ऐसा लगता है कि महानता - वफादारी की तरह - इस बात पर निर्भर करती है कि कौन किस पार्टी के लिए हाथ हिला रहा है.



