ब्लॉगः ढाई दशक पश्चात पार्टी की कमान दक्षिण भारत के हाथ में आएगी, बुजुर्ग पार्टी में चुनाव से अन्य दल सबक लेंगे ?

By राजेश बादल | Published: October 18, 2022 08:07 AM2022-10-18T08:07:01+5:302022-10-18T08:07:31+5:30

कांग्रेस का मजबूत होना उनकी परेशानी का सबब बन सकता है क्योंकि वे अंततः कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर ही अस्तित्व में आए हैं। कांग्रेस के फिर ताकतवर होने से उन्हें अपने वोट बैंक खिसकने का डर है। चाहे वह समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी। तृणमूल कांग्रेस हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस। तेलंगाना राष्ट्र समिति हो अथवा वाई. एस.आर. कांग्रेस, आम आदमी पार्टी हो या फिर अन्य कोई दल।

congress president election After two and a half decades command of the party will come in the hands of South India | ब्लॉगः ढाई दशक पश्चात पार्टी की कमान दक्षिण भारत के हाथ में आएगी, बुजुर्ग पार्टी में चुनाव से अन्य दल सबक लेंगे ?

ब्लॉगः ढाई दशक पश्चात पार्टी की कमान दक्षिण भारत के हाथ में आएगी, बुजुर्ग पार्टी में चुनाव से अन्य दल सबक लेंगे ?

आखिरकार कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की घड़ी आ ही गई और अब देश की सबसे पुरानी इस पार्टी को मुखिया मिल जाएगा। करीब ढाई दशक पश्चात पार्टी की कमान दक्षिण भारत के हाथ में आएगी। संगठन के लिए यह एक तरह से ठीक ही हुआ। लंबे समय से पार्टी को अध्यक्ष तथा अन्य स्तरों पर चुनाव नहीं होने से चौतरफा आक्रमण झेलना पड़ रहा था। कहा जाने लगा था कि दल अब एक शक्ति केंद्र के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है। दल के भीतर लोकतंत्र नहीं बचा है और शिखर नेतृत्व में जिजीविषा बाकी नहीं रही है। सवाल यह भी उठाया जाने लगा था कि क्या भारत स्वतंत्रता आंदोलन से निकली जम्हूरियत की सबसे विराट पार्टी को इस तरह विसर्जित होते देखता रहेगा? एक तरह से दल के आला नेता भी ऊहापोह से गुजर रहे थे कि लोकतंत्र तो अपनी जगह है, मगर क्या वाकई अब इस पार्टी में उनके लिए भी कोई जगह बची है। अगर उनके लिए भाजपा के दरवाजे खुले हुए हैं तो फिर देर क्यों की जाए। हमने देखा है कि अपने आप से लड़ते हुए पार्टी के अनेक समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ता केवल इसी वजह से सत्तारूढ़ दल में शामिल हुए हैं। संभव है कुछ लोग लालच या दबाव में आए हों पर यह भी सच है कि जिस दल को खून पसीने से सींचा गया हो, उसे छोड़ने में किसी को प्रसन्नता नहीं होती।

दिलचस्प है कि राजनीतिक गलियारों में कांग्रेस पर सवाल उन पार्टियों के लोग उठा रहे थे, जिनके अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। बताने की आवश्यकता नहीं कि कमोबेश सारी पार्टियों के भीतर राष्ट्रीय या प्रादेशिक अध्यक्षों के निर्वाचन अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। उनमें संगठन के चुनाव भी नहीं होते। कमोबेश प्रत्येक दल में एक शिखर पुरुष है, जो तय करता है कि उसे अपनी पार्टी किस तरह चलानी है। एक तरह से वह अपनी टीम खुद बनाता है और इसमें किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सहारा नहीं लिया जाता। उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम के किसी भी सियासी दल को देख लीजिए, आंतरिक निर्वाचन सिर्फ दिखावा बन कर रह गए हैं। ऐसे में उनकी ओर से कांग्रेस की घेराबंदी का मकसद यही समझ में आता है कि वे देश पर लगभग पैंतालीस साल तक शासन कर चुकी इस पार्टी से भयभीत हैं। कांग्रेस का मजबूत होना उनकी परेशानी का सबब बन सकता है क्योंकि वे अंततः कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर ही अस्तित्व में आए हैं। कांग्रेस के फिर ताकतवर होने से उन्हें अपने वोट बैंक खिसकने का डर है। चाहे वह समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी। तृणमूल कांग्रेस हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस। तेलंगाना राष्ट्र समिति हो अथवा वाई. एस.आर. कांग्रेस, आम आदमी पार्टी हो या फिर अन्य कोई दल।

दरअसल कांग्रेस ने अध्यक्ष पद पर गांधी-नेहरू परिवार से बाहर का राजनेता लाकर एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है। उसने एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से मान लिया है कि उत्तर भारत में भाजपा के प्रचार तंत्र का मुकाबला करना आसान नहीं है। इसलिए वह दक्षिण भारत में अपने सोये हुए बीजों को अंकुरित करना चाहती है। दक्षिण भारत में कांग्रेस के लिए अभी भी अनुकूल परिस्थितियां हैं। उस क्षेत्र में भाजपा का व्यापक जनाधार भी नहीं है। इसीलिए दक्षिण भारत के हाथों में पार्टी की कमान उस क्षेत्र में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर प्राणवायु का काम कर सकती है। केरल से राहुल गांधी का लोकसभा के लिए निर्वाचन और कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत आने वाले चुनाव के मकसद से कांग्रेस की सुनियोजित रणनीति हो सकती है। जिस तरह दक्षिण भारत में भारत जोड़ो यात्रा को व्यापक जनसमर्थन मिला है, वह यकीनन नए अध्यक्ष के लिए आधार मंच का काम कर सकता है। राहुल गांधी भले ही पार्टी में कोई पद स्वीकार न करें, मगर स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में उनकी भूमिका जमीनी स्तर पर पार्टी का संगठन तंत्र दोबारा खड़ा करने की हो सकती है।

कांग्रेस के लिए पिछले तीन-चार महीने जिस तरह बीते हैं, वे सत्तारूढ़ भाजपा की पेशानी पर बल तो डालते ही हैं। कांग्रेस पार्टी को 2014 के बाद से पहली बार मीडिया के तमाम अवतारों में इतना व्यापक कवरेज मिला है। खास बात यह है कि इसमें नकारात्मक कवरेज का अंश न्यूनतम है। अब सारे दलों को भी अपना घर ठीक करने की चुनौती मिल रही है। यदि उन्होंने लोकतांत्रिक ढंग से पार्टी संविधान के अनुसार अपने चुनाव नहीं कराए तो वे कांग्रेस को बैठे बिठाए चुनाव के लिए मुद्दा दे रहे हैं। वह कह सकेगी कि जो दल अपने भीतर निर्वाचन नहीं करा सकते, वे मुल्क में लोकतंत्र की क्या रक्षा करेंगे। दूसरी बात यह कि दक्षिण भारत में आंध्र, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और पुड्डुचेरी में जनाधार वाले दलों की चिंताएं बढ़ जाएंगी। उन्हें सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर वे कोई अलग ऐसी रणनीति बनाएं, जिससे उनका वोट बैंक सलामत रहे और राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त प्रतिपक्षी गठबंधन भी उभर सके। यह तो स्पष्ट है कि विपक्ष का कोई भी संयुक्त गठबंधन बिना कांग्रेस के नहीं बन सकता। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के लिए निश्चित रूप से यह चौंकाने वाली स्थिति है।

बहरहाल कांग्रेस के नए अध्यक्ष पर पार्टी की विरासत और लोकतांत्रिक मूल्यों की परंपरा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होगी। एक कार्यकर्ता भी अपने दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है - यह धारणा संगठन को ताकतवर बनाने के सिलसिले की शुरुआत बन सकती है। पक्ष और प्रतिपक्ष में आम कार्यकर्ताओं के शिखर पद पर पहुंचने से भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद और पक्की हो सकती है।

Web Title: congress president election After two and a half decades command of the party will come in the hands of South India

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे