लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष और देश के दिग्गज नायक शिवराज पाटिल के निधन के साथ भारत की संसदीय राजनीति का एक अध्याय समाप्त हो गया. 90 साल से अधिक की उम्र में उन्होंने उसी लातूर में आखिरी सांस ली, जहां से उनका राजनीतिक जीवन आरंभ हुआ था. अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में लोकसभा अध्यक्ष, केंद्र में गृह मंत्री और राज्यपाल जैसी भूमिकाओं में रहते हुए उन्होंने लंबी लकीर खींची.
हाल ही में संसद में वंदे मातरम् पर लंबी चर्चा चली, पर शिवराज पाटिल को किसी ने सलीके से याद नहीं किया. जबकि उनके ही लोकसभा अध्यक्ष काल में सभी दलों की सहमति से यह फैसला हुआ था कि सदन के स्थगन के बाद समापन वंदे मातरम् से किया जाएगा. अटलजी ने इस फैसले को बहुत सराहा था. शिवराज पाटिल का संसदीय क्षेत्र में बहुत से मामलों में अहम योगदान रहा.
कई अहम फैसले उनके ही अध्यक्ष काल में हुए. यही नहीं, उत्कृष्ट सांसदों का पुरस्कार भी शिवराज पाटिल की ही देन है.महाराष्ट्र के लातूर जिले से जमीनी स्तर से राजनीति आरंभ कर पाटिल सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़े. 1989 में जब वे लोकसभा उपाध्यक्ष बने, तभी अपने कामकाज से सबको प्रभावित कर लिया था. इसीलिए जब 1991 में नरसिंहराव सरकार बनी तो लोकसभा अध्यक्ष के लिए वे सर्वमान्य चेहरा थे.
संसदीय मामलों, नियम प्रक्रिया और कानूनी मसलों की उनको गहरी समझ थी. सदन को कैसे संभालना है, यह उन्होंने 1977 से 1979 के दौरान महाराष्ट्र विधानसभा में डिप्टी स्पीकर और स्पीकर रहते समझ लिया था.संसद में शिवराज पाटिल विभाग संबंधी संसदीय समितियों की स्थापना के प्रेरक रहे, जिससे संसद के कामकाज का तरीका बदला और संसदीय जवाबदेही और मजबूत हुई.
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने सांसदों को सूचना वितरण, संसद पुस्तकालय भवन के निर्माण और लोकसभा की कार्यवाही के प्रसारण के साथ दोनों सदनों के प्रश्नकाल के सीधे प्रसारण के लिए रास्ता निकाला. उनके ही अध्यक्ष रहते 31 मार्च, 1993 से संसद में विभाग संबंधी स्थायी समितियों की शुरुआत हुई. इस समय 24 स्थायी समितियों के दायरे में पूरा देश समाहित है.
समितियां मंत्रालयों की अनुदान मांगों से लेकर विधेयकों और सरकारी योजनाओं की जमीनी हकीकत की पड़ताल करती हैं. समय के साथ यह प्रणाली ताकतवर हुई है.संसद के दोनों सदनों में वैसे तो 56 संसदीय समितियां काम कर रही हैं, जिसमें से 31 संयुक्त समितियां हैं. इसी में 24 विभाग संबंधी समितियां शामिल हैं.
इसमें तमाम महत्व के मुद्दों, नीतिगत मसलों और व्यापक सिद्धांतों पर चर्चा होती है जिससे संसद का काफी समय बचता है. 1993 में समिति व्यवस्था का जब आरंभ हुआ तो 17 स्थायी समितियां थीं. 2004 में समितियों की संख्या 24 हो गई. इन समितियों में 21 सदस्य लोकसभा से और 10 सदस्य राज्यसभा से होते हैं.
प्रशासनिक सुविधा के लिए 8 समितियां राज्यसभा और 16 समितियां लोकसभा के तहत काम कर रही हैं. संसदीय समितियां अनुदान मांगों पर विचार करते समय बहुत से दस्तावेजों का अध्ययन करती हैं. वे मंत्रालयों की प्रस्तुति पर विचार करती हैं और अनुदान मांगों के साथ संबंधित मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्ट का भी अध्ययन करती हैं.
मंत्रालयों के सचिव और वरिष्ठ अधिकारी समिति में आते हैं. समितियां दलीय आधार पर फैसला नहीं करतीं, बल्कि देश को देखती हैं. समितियों के गठन को लेकर 1992 में गांधीनगर में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में समिति प्रणाली पर गहन चर्चा के बाद फैसला हुआ कि सारे मंत्रालयों और विभागों को विभाग संबंधी समितियों के दायरे में लाकर कार्यपालिका की निगरानी को और मजबूत बनाया जाए.
शिवराज पाटिल ने सभी दलों के नेताओं से चर्चा करके इसे आगे बढ़ाया. इसके लिए नए नियम भी बने. विभाग संबंधी स्थायी समितियों का नेतृत्व अनुभवी नेताओं को सौंपा जाता है. समितियों की अधिकतर रिपोर्ट आम सहमति से तैयार हो रही हैं. समितियां मीडिया की पहुंच से दूर रहती हैं.
साक्ष्यों और दस्तावेजों को सभा पटल पर रखे जाने के पहले प्रकाशित-प्रसारित करने पर रोक है. विभाग संबंधी संसदीय समितियों की खूबी यह है कि इनकी प्रमुख सिफारिशों को सरकार स्वीकार कर रही है. समितियों ने नीतिगत मसलों पर सरकार का ध्यान खींचा और समाधान देने का प्रयास भी किया.