‘देवाभाऊ जो बोलता है वो करता है, जो नहीं बोलता वह जरूर करता है...’ यह किसी फिल्म का डायलॉग नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का राजनीतिक संवाद है. जिसमें प्रतिस्पर्धियों के लिए भी संदेश है और आम जन के मन में भरोसा पैदा करने का प्रयास है. वर्ष 2013 से भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के प्रदेशाध्यक्ष के रूप में राज्य की राजनीति में कदम रखने वाले फडणवीस ने लगातार अपना कद ऊंचा किया है, जिसे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने स्वीकार कर दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उपमुख्यमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी है.
किंतु अपने मूल दल को संभालने में विफल रहे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और लगातार जनाधार खोते महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे नई परिस्थितियों का आकलन नहीं कर पा रहे हैं. वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि विरासत में मिले दल को मजबूती केवल मिलने-जुलने या मंचों से बड़ी-बड़ी बातें करने से नहीं मिल सकती है और न ही मीडिया की सुर्खियों में बने रहने से जनमत तैयार हो सकता है.
इसीलिए जमीनी संघर्ष के बिना उस शख्सियत से उलझा नहीं जा सकता है, जो नीचे से तप कर ऊपर आया हो. बीते दिनों में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बाद टूटी शिवसेना और मनसे का जनाधार सबके सामने है. शिवसेना ने नौ लोकसभा सीटें जीतीं, जो कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के साथ गठबंधन के बाद हासिल हो सकी थीं.
वहीं उसके पुराने साथी भाजपा ने भी लोकसभा की नौ ही सीटें जीतीं और शिवसेना से टूटकर बने शिवसेना के शिंदे गुट ने सात सीटें जीती थीं. यदि तीनों को मिलाकर पुराने भगवा गठबंधन की शक्ल में देखा जाए तो उनके खाते में 25 सीटें नजर आती हैं. यह संख्या राजनीति में मोदी युग से पहले के वर्ष 2009 की संख्या 20 से काफी अधिक है और वर्ष 2014 और 2019 की तुलना में आधी है.
इस नाते लाभ मोदी युग का मिला और शिवसेना का नुकसान भी उससे दूर जाने के कारण हुआ. वर्ष 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना क्रमश: 63 और 56 के आंकड़ों पर ही नजर आई. विभाजन के बाद शिवसेना का शिंदे गुट 57 और ठाकरे गुट 20 सीटें हासिल कर सका. साफ है कि शिवसेना के जनाधार में जोड़-तोड़ से बहुत बड़ा अंतर नहीं आया.
एकजुट रह कर भी उसने जो पाया, वही स्थिति टूटने पर रही. हालांकि उसे भाजपा के साथ गठबंधन का लाभ हमेशा मिला. खास तौर पर मोदी युग में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना जब भाजपा के साथ गठबंधन में जुड़ी तो वह भी 57 सीटों तक पहुंच गई. दूसरी ओर मनसे ने कभी भाजपा का समर्थन और कभी खुला विरोध किया.
किंतु उसका न असर भाजपा पर दिखा, न ही पार्टी को अपने परिश्रम का लाभ मिला. वह गिरते-गिरते रसातल पर जा पहुंची है. शिवसेना और मनसे दोनों के लगातार नीचे लुढ़कने के सिलसिले को रोकने की जुगत में दोनों दलों के प्रमुख उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे साथ हैं, जिनके साथ आने की मजबूरी भाजपा ही है.
दोनों का मानना है कि भाजपा अपनी प्रगति के आगे दूसरे समर्थक दलों को समाप्त करती जाती है. इसलिए लंबे समय तक भाजपा के साथी रहे दोनों दलों ने खतरे की घंटे को सुनकर सतर्कता के साथ अगली तैयारी आरंभ की है. जिसे मेल-मिलाप में मूर्त रूप देने का अनुमान लगाया जा रहा है. किंतु अब समय काफी बीत चुका है.
पहले दल के टुकड़े हो रहे थे, जिनसे मनसे जैसे दल बने थे या फिर नेता इधर-उधर जा रहे थे. अब तो पूरी पार्टी ही चुनाव चिह्न के साथ दूसरी ओर खड़ी हो गई है और उसने स्वयं को शिवसेना का असली वारिसदार घोषित कर दिया. यदि ठाकरे बंधु साथ आते हैं तो महाविकास आघाड़ी के गठबंधन समीकरण बिगड़ना तय हैं, जिनका शिवसेना ठाकरे गुट को बड़ा सहारा है.
भाजपा अथवा कांग्रेस-राकांपा की सहायता नहीं मिलने पर दोनों के समक्ष जनाधार बढ़ाने का संकट पैदा हो सकता है, क्योंकि उद्धव ठाकरे सहानुभूति के सहारे बार-बार जनमत कैसे मांगेंगे और बदलती भूमिकाओं के चलते राज ठाकरे मतदाता पर अपनी विश्वसनीयता कैसे बनाए रख पाएंगे. स्थानीय निकायों के चुनावों के मुहाने पर भाजपा, राकांपा के दोनों गुट लगातार तैयारियों में जुटे हैं.
कांग्रेस भी धीमी-तेज गति से चल रही है. शिवसेना का शिंदे गुट भी भाग-दौड़ में लगा है. शिवसेना ठाकरे गुट की तैयारियां सीमित हैं. मनसे अपने आंदोलनों के स्टाइल पर आश्रित है. इसके ऊपर कार्यकर्ताओं की फौज का विस्तार और समय-समय पर उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता को पूरा करना शिवसेना ठाकरे गुट और मनसे में नहीं दिख रहा है.
कुछ दिख रहा है तो बस भाइयों का मिलन दिख रहा है. यदि मुंबई की सीमाओं में भी दोनों मिलकर लड़ते हैं तो वह भी भाजपा-शिवसेना शिंदे गुट के लिए लाभकारी साबित होगा, क्योंकि अनेक स्थानों पर उनका एक प्रतिस्पर्धी कम हो जाएगा. दोनों के विपरीत भाजपा गठबंधन की चर्चाओं से अधिक राज्य में अपने सहयोगियों को स्थानीय निकायों में खुलकर खेलने का अवसर दे रही है.
जिससे समय-परिस्थिति के अनुसार चुनाव लड़े जा सकेंगे. भाजपा नेताओं ने लगातार अपने दौरों के साथ चुनाव के लिए अपना पूरा चक्रव्यहू तैयार किया है, जो स्थानीय निकाय के स्तर से पार्टी को मजबूत बनाना चाहता है. दरअसल महाराष्ट्र के अलावा अनेक भाजपा शासित राज्यों में भी ऐसी ही स्थितियां हैं.
फिर भी भाइयों के मिलन को बड़ी खबर माना जा रहा है, जबकि भाजपा राज्य और दिल्ली में एक-एक ‘भाऊ’ तैयार कर चुकी है. जिसमें से एक के चक्कर में उलझने के लिए दो भाई तैयार हो रहे हैं. करीब 19 साल तक एक-दूसरे से बात नहीं करने वाले भाइयों का संवाद कितना सुमधुर हो पाएगा, यह तो समय ही बताएगा. मगर तब तक महाराष्ट्र के ‘भाऊ’ का कोई दूसरा डायलॉग सुनने में जरूर आ जाएगा.