हेमधर शर्माहाल ही में दुनिया में क्रिसमस और नये साल का जश्न मनाया गया. अब खबर है कि अमेरिका में सेलिब्रेशन के बाद दुकानों में गिफ्ट्स लौटाने वालों की भीड़ उमड़ रही है. सब जानते हैं कि उपहार जितने में खरीदे जाते हैं, उससे करीब आधे दामों में ही बिकते हैं. हालांकि उपहार की कीमत नहीं बल्कि उसे देने वाले की भावना देखी जाती है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उपहारों का यही उद्देश्य होता है कि वे पाने वाले के काम आएं. इसके बावजूद किसी को उपहार देते समय क्या हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि वह पाने वाले के कितना काम आएगा?
सच तो यह है कि उपहारों के बारे में उपयोगिता की दृष्टि से सोचा जाने लगे तो प्राय: हर औपचारिक आयोजन में स्वागत के लिए दिए जाने वाले पुष्पगुच्छ या बुके की निरर्थकता खुलकर नजर आने लगेगी. ऐसे कितने लोग होते हैं जो स्वागत में मिलने वाले पुष्पगुच्छ या बुके अपने घर ले जाते हैं या उसका कोई सदुपयोग करते हैं? पुष्पगुच्छ देने वाला भी जानता है और लेने वाला भी कि कुछ मिनट बाद (अथवा आयोजन की समाप्ति पर) उसकी नियति कूड़ेदान में जाना ही है, फिर भी हम परंपरा को बदलने की बात सोचते भी नहीं! गांधी युग में जरूर अतिथियों को हाथ से कते सूत की माला पहनाई जाती थी, जो बाद में कपड़ा बुनने के काम आती थी, लेकिन आजादी मिलने के बाद जैसे हमने चरखे को कालबाह्य कर दिया, वैसे ही सूत की माला को भी.
ऐसा नहीं कि पुष्पगुच्छ का और कोई सार्थक पर्याय ही नहीं है; अतिथियों को हम पुस्तकें भेंट कर सकते हैं, पौधे या बीज, कोई कलाकृति (जिसे पाने वाला अपने घर में सजा सके) या कोई अन्य उपयोगी वस्तु; लेकिन शायद हम भेड़चाल के इतने आदी हो जाते हैं कि कुछ नया सोचने की जहमत ही नहीं उठाते!
कलावादियों और उपयोगितावादियों के बीच इस बारे में बहस पुरानी है और शायद हमेशा बनी रहेगी. जो लोग मानते हैं कि ‘कला कला के लिए’ होती है, उनका कहना है कि कला को उपयोगिता की नजर से नहीं देखना चाहिए, वह सिर्फ सौंदर्य के लिए होती है. इसीलिए आजादी के पूर्व, अकाल के दौरान जब गांधीजी ने अमीरों को सुझाव दिया कि वे अपनी बगिया में गुलाब की जगह गोभी के फूल उगाएं तो कलावादियों ने इसका बहुत विरोध किया था.
बेशक, एक समृद्ध समाज में कला को उपयोगिता की दृष्टि से न देखकर सिर्फ मनोरंजन या सौंदर्य तक सीमित रखा जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से हम भारतीय अभी आर्थिक समृद्धि के उस शिखर तक नहीं पहुंचे हैं जहां चांद की कल्पना रोटी नहीं, रूपसी के तौर पर कर सकें.
मजे की बात यह है कि बाजार भी फैशन उसी को बनाता है, जो मेहनतकश होने का भ्रम पैदा करे. क्या हम जानते हैं कि जीन्स की जो पैंट आज फैशन बन चुकी है, कभी उन्हें खदानों में काम करने वाले मजदूर पहनते थे! चूंकि जीन्स लम्बे समय तक नहीं फटती, इसलिए मजदूरों के लिए यह मुफीद थी. आज जब हम जानबूझकर फाड़ी गई जीन्स पहनते हैं तो क्या अनजाने में यही भ्रम पैदा नहीं करना चाहते कि हम भी मेहनती इंसान हैं! फिर हम दिखावा करने के बजाय यथार्थ में वैसा ही बनने से क्यों डरते हैं?