लाइव न्यूज़ :

कांशीराम कहते थे कि आंबेडकर ने किताबों से सीखा, लेकिन मैंने अपने जीवन और लोगों से सीखा

By सतीश कुमार सिंह | Updated: November 11, 2019 14:19 IST

कांशीराम के शुरुआती वर्ष ग्रामीण पंजाब में बीते और पुणे में आंबेडकरवादियों के साथ मिलकर ‘बामसेफ’ की नींव डाली, जो व्यापक स्वरूप वाला ऐसा संगठन था जिसने पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एकजुट किया और अन्ततोगत्वा 1984 में ‘बहुजन समाज पार्टी’ बनाई।

Open in App
ठळक मुद्देकांशीराम दलितों के साथ हुई किसी ज़्यादती को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।कांशीराम (1934-2006) की प्रतिष्ठा, आज के समय में आंबेडकर के बाद के एकमात्र नेता के रूप में है।

किताब : कांशीराम - बहुजनों के नायक

लेखक : बद्री नारायण

प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

कांशीराम कहते थे कि आंबेडकर ने किताबों से सीखा, लेकिन मैंने अपने जीवन और लोगों से सीखा। यह भी कि वह किताबें इकट्ठा करते थे, मैंने लोगों को इकट्ठा करने की कोशिश की। इस तरह से कांशीराम ने आंबेडकर के संघर्ष को नया अर्थ दिया।

'कांशीराम: बहुजनों के नायक' पुस्तक के लेखक हैं प्रोफ़ेसर बद्री नारायण। देश की राजनीति में और बहुजनों के राजनीतिक सशक्तीकरण में अद्भुत योगदान देनेवाले इस महान नेता को जानने-समझने में यह किताब बहुत मददगार हो सकती है। कांशीराम (1934-2006) की प्रतिष्ठा, आज के समय में आंबेडकर के बाद के एकमात्र नेता के रूप में है। यह किताब उनकी पूरी यात्रा पर रोशनी डालती है। कांशीराम के शुरुआती वर्ष ग्रामीण पंजाब में बीते और पुणे में आंबेडकरवादियों के साथ मिलकर ‘बामसेफ’ की नींव डाली, जो व्यापक स्वरूप वाला ऐसा संगठन था जिसने पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों को एकजुट किया और अन्ततोगत्वा 1984 में ‘बहुजन समाज पार्टी’ बनाई। इसका अनुवाद सिद्धार्थ ने किया है।

कांशीराम दलितों के साथ हुई किसी ज़्यादती को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। कांशीराम पर किताब लिखने वाले एसएस गौतम बताते हैं, "एक बार कांशीराम रोपड़ के एक ढाबे में गए, वहां उन्होंने खाना खा रहे कुछ ज़मींदारों को शेख़ी बघारते हुए सुना कि किस तरह उन्होंने खेतों में काम कर रहे दलितों को सबक सिखाने के लिए उनकी पिटाई की है। ये सुनना था कि कांशीराम का ख़ून खौल उठा और वो इतने आगबबूला हो गए कि उन्होंने एक कुर्सी उठाई और उससे ज़मीदारों को पीटने लगे। इस चक्कर में कई मेज़ें पलट गईं और उनपर रखी सभी प्लेटें चकनाचूर हो गईं।"

कांशीराम का मानना था कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों की संख्या भारत की जनसंख्या की 85 फ़ीसदी है, लेकिन 15 फ़ीसदी सवर्ण जातियां उन पर शासन कर रही हैं। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी तो बना डाली, लेकिन विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज कर पाना इतना आसान नहीं था।

अलीगढ़ में रहने वाले कांशीराम के एक पूर्व सहयोगी अमृतराव अकेला बताते हैं, "1985 में जब बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ रही थी तो कांशीराम ने कहा था कि पहला चुनाव हम हारेंगे, दूसरे चुनाव में हराएंगे और तीसरे चुनाव में जीतेंगे। उनका कहना था कि हम इस देश में बहुजन समाज को हुक्मरान बनाना चाहते हैं। लोकतंत्र में जिनकी संख्या ज़्यादा होती है उनको हुक्मरान होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने एक नारा लगाया था 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी।' उनका एक और नारा था 'जो बहुजन की बात करेगा, वो दिल्ली पर राज करेगा।"

भारत में दलितों के इतिहास का वर्णन करते हुए कांशीराम लिखते हैं कि दुनिया के किसी समुदाय ने ऐसे उत्पीड़न का सामना नहीं किया जैसा भारत के अछूतों ने किया है। यहां तक कि गुलामों, नीग्रो और यहूदियों की कोई भी तुलना भारत के अछूतों से नहीं की जा सकती, जब हम एक मानव की दूसरे मानव के साथ अमानवीय व्यवहार के बारे में सोचते हैं तो अछूतों के खिलाफ़ हिन्दुओं की कट्टरपन्थियों जैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है। भारत के अछूत शताब्दियों से सर्वाधिक दयनीय गुलाम रहे हैं।

अनगिनत मौखिक और लिखित स्रोतों का सहारा लेकर बद्री नारायण ने दिखाया है कि कैसे कांशीराम ने अपने ठेठ मुहावरों, साइकिल रैलियों और विलक्षण ढंग से स्थानीय नायकों और मिथकों का इस्तेमाल करते हुए व उनके आत्मसम्मान को जगाते हुए दलितों को गोलबन्द किया और कैसे उन्होंने सत्ता पर कब्जा करने के लिए ऊँची जाति की पार्टियों से अवसरवादी गठबन्धन कायम किए। यह किताब कांशीराम की मृत्यु तक मायावती के साथ उनके असाधारण रिश्ते की कहानी भी कहती है। साथ ही उनके सपने को पूरा करने के लिए उनके जीवित रहते और उनकी मृत्यु के बाद मायावती की भूमिका को भी रेखांकित करती है।

दो लोगों के बीच के विरोधाभासी नज़रिए को आमने-सामने रखते हुए, नारायण रेखांकित करते हैं कि कैसे कांशीराम ने आंबेडकर के विचारों को भिन्न दिशा दी। जाति का उच्छेद चाहनेवाले आंबेडकर से उलट, कांशीराम ने जाति को दलित पहचान को उभारने के एक आधार और राजनीतिक सशक्तीकरण के एक स्रोत के रूप में देखा। प्राधिकार और पैनी दृष्टि सृजित यह दुर्लभ शब्दचित्र उस आदमी का है, जिसने दलित समाज का चेहरा बदलकर रख दिया और वाकई भारतीय राजनीति का भी।

बद्रीनारायण बताते हैं, "उनका अंत अच्छा नहीं हुआ। एक बार जब वो ट्रेन से जा रहे थे तभी उनको ब्रेन हैमरेज हो गया, जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उन्हें स्मृतिलोप हो चुका था। वह लोगों को पहचानते नहीं थे। फिर मायावती उन्हें अपने घर ले गईं। कांशीराम के भाइयों ने इसका विरोध किया और वो एक बड़ी लड़ाई में फंस गए। मायावती उन्हें अपने यहां रखना चाहती थीं और उनके परिवार वाले उन्हें अपने यहां ले जाना चाहते थे।"

सामाजिक क्षेत्र में कांशीराम दलितों के लिए भले ही कुछ न कर पाए हों, लेकिन ये उनकी राजनीतिक इंजीनियरिंग का ही फल था कि दलितों ने पहली बार अकले ही सत्ता का स्वाद चखा, लेकिन कांशीराम ने जीवनपर्यंत कोई राजनीतिक पद नहीं स्वीकार किया।

टॅग्स :पुस्तक समीक्षाकाशीरामबीएसपीमायावतीउत्तर प्रदेशपंजाबमहाराष्ट्र
Open in App

संबंधित खबरें

ज़रा हटकेVIDEO: सीएम योगी ने मोर को अपने हाथों से दाना खिलाया, देखें वीडियो

भारतयूपी में निजी संस्थाएं संभालेंगी 7,560 सरकारी गोआश्रय स्थल, पीपीपी मॉडल पर 7,560  गोआश्रय स्थल चलाने की योजना तैयार

भारतमुजफ्फरनगर की मस्जिदों से 55 से ज्यादा लाउडस्पीकर हटाए गए

भारतकफ सिरप कांड में शामिल बर्खास्त सिपाही आलोक सिंह गिरफ्तार, बसपा के पूर्व सांसद धनंजय सिंह का ख़ास

क्राइम अलर्टEtah Accident: तेज रफ्तार ट्रक का कहर, दो मोटरसाइकिल को मारी टक्कर, तीन लोगों की मौत

भारत अधिक खबरें

भारतबिहार विधानमंडल के शीतकालीन सत्र हुआ अनिश्चितकाल तक के लिए स्थगित, पक्ष और विपक्ष के बीच देखने को मिली हल्की नोकझोंक

भारतBihar: तेजप्रताप यादव ने पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास के खिलाफ दर्ज कराई एफआईआर

भारतबिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम हुआ लंदन के वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज, संस्थान ने दी बधाई

भारत‘पहलगाम से क्रोकस सिटी हॉल तक’: PM मोदी और पुतिन ने मिलकर आतंकवाद, व्यापार और भारत-रूस दोस्ती पर बात की

भारतIndiGo Flight Cancel: इंडिगो संकट के बीच DGCA का बड़ा फैसला, पायलटों के लिए उड़ान ड्यूटी मानदंडों में दी ढील