ब्लॉगः समान नागरिक संहिता का वादा या सत्ता का इरादा!, क्या है मोदी सरकार की राजनीतिक मंशा?
By राजकुमार सिंह | Updated: June 28, 2023 09:56 IST2023-06-28T09:56:23+5:302023-06-28T09:56:53+5:30
ऐसे में विचार या बहस का मुद्दा संप्रदाय और सत्ता-राजनीति से परे व्यापक राष्ट्रहित होना चाहिए। स्वाभाविक ही अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कानून से जटिलताएं पैदा होती हैं। न्याय प्रक्रिया में भी विलंब होता है। सच यह भी है कि न सिर्फ अमेरिका जैसे देश में, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, सूडान, मलेशिया, मिस्र और इंडोनेशिया सरीखे देशों में भी सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू हैं।

ब्लॉगः समान नागरिक संहिता का वादा या सत्ता का इरादा!, क्या है मोदी सरकार की राजनीतिक मंशा?
22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर धार्मिक संस्थाओं और आम नागरिकों से 13 जुलाई, 2023 तक विचार और सुझाव मांगे हैं। बेशक ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। नवंबर 2016 में भी विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर विचार आमंत्रित किए थे, जिनके आधार पर 2018 में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया कि विभिन्न समुदायों के निजी या पारिवारिक कानून के बदले समान संहिता जरूरी नहीं है। अब फिर उसी तरह सुझाव आमंत्रित करने का अर्थ निकाला जा रहा है कि केंद्र सरकार उस दिशा में कदम बढ़ाना चाहती है। जब भाजपा शासित गुजरात और उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता की दिशा में काम शुरू हुआ, तभी से यह कयास लगाए जा रहे थे कि सरकार दूसरे कार्यकाल के अंतिम चरण में अपना एक और परंपरागत चुनावी वायदा पूरा करने जा रही है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाली संविधान की धारा 370 की समाप्ति की तरह देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू करना जनसंघ काल से ही भाजपा की घोषित वचनबद्धता रही है। पहले जनसंघ और फिर भाजपा के चुनाव घोषणापत्रों में भी इसे शामिल किया जाता रहा, लेकिन गठबंधन राजनीति के दबाव में उसे ठंडे बस्ते में भी डाला जाता रहा।
वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर स्पष्ट बहुमत मिल जाने के बाद से माना जाता रहा है कि भाजपा धीरे-धीरे अपनी चुनावी वचनबद्धता को पूरा करने की दिशा में बढ़ेगी। पहले कार्यकाल में भी भाजपा अकेले दम, स्पष्ट बहुमत से भी 10 ज्यादा, लोकसभा में 282 सीटें जीतने में सफल रही थी, लेकिन अपने मूल एजेंडा पर अमल के लिए सरकार ने दूसरे कार्यकाल का जनादेश मिलने की प्रतीक्षा की। पहले कार्यकाल में नोटबंदी और जीएसटी सरीखे बड़े फैसले तो किए गए, पर उन संवेदनशील मुद्दों से परहेज ही रहा, जिनसे सरकार पर ध्रुवीकरण के आरोप लग सकते थे। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में पिछली बार से भी अधिक 303 सीटें अकेले दम मिल जाने के बाद भाजपा और मोदी सरकार के तेवर बदले नजर आए। नागरिकता संशोधन कानून से लेकर तीन तलाक और धारा 370 की समाप्ति तक देश पर दूरगामी असर डालनेवाले फैसले उसके बाद ही लिए गए, जिन पर तीव्र राजनीतिक-सामाजिक प्रतिक्रिया भी हुई। इसी अवधि में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मार्ग भी देश की सर्वोच्च अदालत के निर्णय से प्रशस्त हो गया। संकेत हैं कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले ही राम मंदिर का उद्घाटन हो जाएगा, जिसका लाभ भी भाजपा को मिलेगा ही, लेकिन लगातार तीसरी बार सत्ता का जनादेश लेने के लिए वह शायद अपने सभी परंपरागत वायदों को पूरा करने के रिपोर्ट कार्ड के साथ जाना चाहती है।
इसलिए भी विधि आयोग द्वारा सुझाव आमंत्रित किए जाने से राजनीति गरमा गई है और विपक्ष चौकन्ना हो गया है। समान नागरिक संहिता ऐसा मुद्दा है, जिसका तार्किक विरोध विपक्ष के लिए आसान नहीं। बेशक मुद्दा नया नहीं है। इतिहास के पन्ने पलटें तो 1835 में अंग्रेजी शासन ने भी महसूस किया था कि भारत को समान नागरिक संहिता की जरूरत है, लेकिन उन्होंने विभिन्न समुदायों के लिए जारी निजी या पारिवारिक कानूनों को छेड़े बिना ही अपराध, सबूत और अनुबंध आदि मामलों में समान कानून की वकालत अपनी रिपोर्ट में की। आजादी के बाद संविधान सभा में भी समान नागरिक संहिता पर विचारोत्तेजक बहस हुई। खासकर कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी ने इसके पक्ष और बी। पोकर साहब ने इसके विपक्ष में जो कुछ कहा, वह पढ़ने और विचार करने योग्य है। समान कानून की सोच को अक्सर अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध बताकर उसका विरोध किया जाता है, जबकि सच यह है कि मुस्लिम ही नहीं, बल्कि विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार आदि मामलों के लिए हिंदू समुदाय में भी धार्मिक -परंपरागत कानून हैं। सिख और जैन समुदाय में भी हिंदू लॉ चलता है, जबकि ईसाई और पारसी समुदाय के लिए अलग पर्सनल लॉ हैं।
ऐसे में विचार या बहस का मुद्दा संप्रदाय और सत्ता-राजनीति से परे व्यापक राष्ट्रहित होना चाहिए। स्वाभाविक ही अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कानून से जटिलताएं पैदा होती हैं। न्याय प्रक्रिया में भी विलंब होता है। सच यह भी है कि न सिर्फ अमेरिका जैसे देश में, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, सूडान, मलेशिया, मिस्र और इंडोनेशिया सरीखे देशों में भी सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू हैं। ऐसे में समान कानून की सोच सिद्धांतत: गलत नहीं। हमारा संविधान भी नागरिकों में समानता की बात कहता है, लेकिन यह संदेश जाना भी उचित नहीं कि समुदायों को उनके धार्मिक विश्वासों के आधार पर चलने से वंचित किया जा रहा है। संविधान निर्माताओं ने यह संवेदनशील विषय भविष्य के लिए इसीलिए खुला छोड़ दिया होगा कि न सिर्फ सरकार, बल्कि समाज के अग्रणी लोग भी समान कानून की दिशा में बढ़ने के लिए समाज को तैयार करेंगे। विडंबना है कि वैसा कुछ किया नहीं गया। समाज और राष्ट्र के एकीकरण के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी दोनों ओर से सिर्फ राजनीति की जाती रही। मोदी सरकार की राजनीतिक मंशा से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन जब विधि आयोग ने सुझाव आमंत्रित कर ही लिए हैं तो चुनावी लाभ-हानि के परिणाम जनता-जनार्दन के विवेक पर छोड़ इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी से सही दिशा में बढ़ने की कोशिश सभी की जिम्मेदारी है।