प्रभु चावला
इतिहास में लौटना उन नेताओं के लिए दुखद होता है, जो इतिहास बनाने के अभ्यस्त होते हैं. उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देकर जगदीप धनखड़ ने इतिहास बनाया है, लेकिन संसदीय मामलों में उनका यह कीर्तिमान गौरवशाली नहीं है. उनका असामयिक इस्तीफा देश के राजनीतिक क्षितिज पर वज्रपात की तरह है. इसका असर इतना भयानक है कि इसने भाजपा के सुनियोजित विमर्श को ध्वस्त कर दिया है. धनखड़ के इस्तीफे में स्वास्थ्य की चिंता को कारण बताया गया, लेकिन उनका इस्तीफा स्वास्थ्य के कारण तो नहीं ही था.
एक दबंग जाट और एक समय हिंदुत्व के मजबूत पैरोकार बने जगदीप धनखड़राजस्थान की सामंती राजनीतिक जमीन से उठकर लुटियंस की दिल्ली तक पहुंचे. भगवा प्रतिबद्धता का प्रदर्शन उन्होंने अपनी छवि चमकाने के लिए किया. लेकिन खुशामद और महत्वाकांक्षा के बीच धनखड़ से अतिसक्रियता की गलती हो गई.
न्यायपालिका को ‘नुकसान पहुंचाने वाले राष्ट्रविरोधी’ कहने और अपने से असहमत लोगों को फटकारने की उनकी जो शैली कभी संघ परिवार के डिजिटल सैनिकों को बहुत अच्छी लगती थी, वह दीर्घस्थायी नहीं रही. बंद कमरों के अंदर पार्टीजनों द्वारा उनके अनियंत्रित व्यवहार पर चिंता जताई जाने लगी.
धनखड़ के इस्तीफे पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा एक्स पर एक संक्षिप्त तथा निर्वैयक्तिक पोस्ट लिखे जाने के बाद जैसे उन्हें कोसने वालों की बाढ़ आ गई. धनखड़ के औचक इस्तीफे ने अलबत्ता भाजपा के इस अलिखित निर्देश को हवा दे दी है कि पार्टी नेताओं को पचहत्तर की उम्र के बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए.
हालांकि पार्टी के अंदर के लोगों का कहना है कि इस अलिखित नियम के पीछे कोई ठोस वैचारिकता नहीं है. इसे चुनिंदा और मनमाने ढंग से लागू किया जाता रहा है. इसका नतीजा यह है कि निष्ठावान और आजमाए हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुभवी लोग पार्टी या सरकार में योगदान देने से वंचित रह जाते हैं.
धनखड़ का इस्तीफा प्रतीक है कि बिना संघ की वैचारिकता वाले लोगों को ऊंचा पद देना भाजपा के लिए जोखिम भरा हो सकता है. संघ के कार्यकर्ता एक और जाट नेता सत्यपाल मलिक का उदाहरण देते हैं, जिनके कारण पार्टी को कितनी मुश्किल झेलनी पड़ी. इस कारण संघ अस्थिर अवसरवादियों के बजाय अपनी वैचारिकता के लोगों को वरीयता देने की मांग कर रहा है.
संघ के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि नियुक्तियां प्रतिभा और प्रतिबद्धता पर आधारित होनी चाहिए. कुछ दूसरे लोगों के साथ प्रतिबद्ध स्वयंसेवक राजनाथ सिंह उपराष्ट्रपति पद के अगले संभावित उम्मीदवारों की सूची में हैं. ऐसा होता है तो उनकी प्रोन्नति से कैबिनेट में फेरबदल हो सकता है और वे मंत्री निशाने पर आ सकते हैं, जो पांच साल से अधिक समय से एक ही मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं.
कई मंत्री आर्थिक पुनरोद्धार से ‘एक देश-एक चुनाव’ तक मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं को फलीभूत करने में विफल रहे हैं. चूंकि कांग्रेस के नेतृत्व में 234 सीटों वाला इंडिया गठबंधन सही अवसर की तलाश में है, ऐसे में, भाजपा सुस्त बनी नहीं रह सकती. अल्पसंख्यक वोट बैंक पर निर्भर उसके सहयोगी दल टीडीपी और जद (यू) हिंदुत्व के विमर्श का समर्थन नहीं करेंगे, बल्कि उसे काट-छांटकर संपादित करेंगे.
संघ अनंत काल तक धैर्य नहीं रख सकता. इस साल मार्च में प्रधानमंत्री मोदी का नागपुर स्थित संघ कार्यालय का दौरा प्रतीकात्मक नहीं, अनिवार्य था. यह इस तथ्य को स्वीकारना था कि चुनावी राजनीति में वर्चस्व बनाए रखने के लिए भाजपा अपने विमर्श से भटक गई है.
आज भी चुनावी नक्शे, नौकरशाही में असर तथा सांस्कृतिक संस्थानों में यह सबसे आगे है, लेकिन किसी ठोस प्रयोजन के बगैर सत्ता क्षय की निशानी है. संघ भाजपा को यह साफ-साफ बता दे रहा है कि अनुशासन, प्रतिबद्धता और वैचारिक निष्ठा भगवा राजनीति के अगले चरण का आधार होनी चाहिए.
वर्ष 2029 तक कम से कम एक दर्जन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में, मोदी को योद्धा चाहिए, अवसरवादी नहीं. योगी आदित्यनाथ और देवेंद्र फडणवीस इस कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरते हैं. बाकी लोगों को परे कर दिया जाएगा. भाजपा को अब एक ऐसा नेतृत्व तैयार करना चाहिए, जो भगवा वैचारिकता से लैस हो.