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ब्लॉग: अपराधियों के साथ नायकों जैसा व्यवहार ठीक नहीं, गुजरात में 20 साल बाद फिर मनुष्यता शर्मसार हुई

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: August 26, 2022 13:59 IST

जिन ग्यारह व्यक्तियों को क्षमा-दान मिला है, वे घोषित अपराधी हैं. न्यायालय ने उन्हें इस अपराध की सजा भी दी है. शर्म आनी चाहिए थी उन्हें जिन्होंने अपराधियों का स्वागत किया.

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पिछले दिनों पंद्रह अगस्त के दिन जब प्रधानमंत्री लाल किले से नारी-अस्मिता की रक्षा की बात कर रहे थे, गुजरात में नारी-सम्मान से संबंधित ऐसा कुछ घट रहा था, जिससे मनुष्यता शर्मसार होती है. हां, आज से बीस साल पहले उस दिन भी मनुष्यता शर्मसार हुई थी जब एक गर्भवती महिला के साथ ग्यारह दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार किया था, उसकी तीन वर्ष की बेटी को पत्थर पर पटककर मार दिया था, और उसके परिवार के सात व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया था. मैं बिल्कीस बानो की बात कर रहा हूं. 

उसके साथ नृशंस व्यवहार करने वालों को अपराधी पाया गया और कानून के अनुसार सजा भी दी गई. जिस ‘ऐसा कुछ’ घटने की बात से यह बात शुरू हुई है, वह उन सब अपराधियों को क्षमा-दान देने की है. 14 साल की सजा भुगतने के बाद उन सब अपराधियों को सरकारी निर्णय के अनुसार जेल से रिहा कर दिया गया. बात यहीं तक सीमित नहीं है. मनुष्यता के शर्मसार होने की घटना और आगे बढ़ती है. वे ग्यारह अपराधी जब जेल से बाहर आए तो फूल मालाएं पहनाकर और मिठाई खिलाकर उनका स्वागत-अभिनंदन किया गया.

बात यहां खत्म नहीं होती है. इसके आगे जो घटा, या जो नहीं घटा, वह भी कम शर्मसार करने वाली बात नहीं है. होना तो यह चाहिए था कि गुजरात सरकार की इस कार्रवाई पर देश स्वयं को शर्मसार महसूस करता, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं. न किसी को शर्म आई, न किसी को गुस्सा आया! हां, सरकार की इस कार्रवाई पर थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट तो हुई, पर यह बात अपने आप में कम शर्मनाक नहीं है कि इस क्षमा-दान और अपराधियों के साथ नायकों जैसा व्यवहार होने का विरोध करने वाली आवाजें कब उठीं, और कब कहीं खो गईं, पता ही नहीं चला.

ऐसा नहीं है कि अपराधियों को पहले कभी क्षमा-दान नहीं मिला. ऐसी व्यवस्था है कि जेल में अपराधियों के व्यवहार, अपराध की गंभीरता आदि को देख कर चौदह साल की सजा भुगतने के बाद उन्हें क्षमा-दान मिल सकता है, पर न्यायालय ने यह भी कहा हुआ है कि बलात्कारियों और जघन्य हत्या करने वालों को इस व्यवस्था के अंतर्गत सजा में रियायत नहीं मिलनी चाहिए. संभव है, इस मामले में पीड़ित पक्ष फिर से न्यायालय का दरवाजा खटखटाए और शायद अपराधियों को फिर से जेल भेज दिया जाए, पर यहां बात समाज के उस व्यवहार की होनी चाहिए, उस लगभग चुप्पी की होनी चाहिए जो वस्तुत: बहरा कर देने वाली है.

बीस साल पहले बिल्कीस बानो के साथ जो हुआ, उसकी भर्त्सना तो सब करते हैं, पर जब इस भर्त्सना के साथ ‘लेकिन’ लगा दिया जाता है तो कहीं न कहीं नीयत में खोट दिखाई देने लगती है. ‘लेकिन’ लगाकर कुछ लोगों को यह कहना भी जरूरी लगता है कि बिल्कीस के साथ जो घटा उसकी पृष्ठभूमि में कहीं गोधरा में रेलगाड़ी में आग लगाए जाने की घटना भी है. 

गोधरा का यह कांड भी किसी दृष्टि से क्षम्य नहीं कहा जा सकता. रेलगाड़ी के उस डिब्बे में जो कुछ हुआ, वह भी उतना ही जघन्य अपराध था जितना बिल्कीस के साथ हुआ अत्याचार. उसके अपराधियों को भी उपयुक्त सजा मिलनी ही चाहिए. लेकिन गोधरा-कांड के नाम पर बिल्कीस बानो पर हुए अत्याचार की गंभीरता और वीभत्सता को कम समझने की मानसिकता भी किसी अपराध से कम नहीं है. भर्त्सना इस अपराध की भी होनी चाहिए.

जिन ग्यारह व्यक्तियों को क्षमा-दान मिला है, वे घोषित अपराधी हैं. न्यायालय ने उन्हें इस अपराध की सजा भी दी है. शर्म आनी चाहिए थी उन्हें जिन्होंने अपराधियों का स्वागत किया. लेकिन इसकी सजा शायद अदालत नहीं दे सकती. यह काम जागृत और विवेकशील समाज को करना होता है. सामाजिक स्तर पर यह आवाज उठनी ही चाहिए कि ऐसा अपराध करने वालों की, चुप रहकर गलत को देखते रहने वालों की भी सामाजिक स्तर पर भर्त्सना होनी चाहिए.

सवाल किसी बिल्कीस के अपराधियों को सजा देने का ही नहीं है, सवाल ऐसा वातावरण बनाने का भी है जिसमें ऐसा कोई अपराध करने वालों को डर लगे. किसी बिल्कीस को डर-डर कर न जीना पड़े. बिल्कीस के अपराधियों ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि उन्हें अपने किए का कोई पछतावा है, और उन अपराधियों का स्वागत-अभिनंदन करने वाले भी यही संकेत दे रहे हैं कि वे उनके अपराधों को क्षम्य मांगते हैं. सच कहें तो अपराध ही नहीं मानते. समाज की चुप्पी इस आपराधिक प्रवृत्ति का समर्थन करती दिख रही है. यह सब कुछ डरावना है. यह बदलना चाहिए. कौन बदलेगा? और कैसे?

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