बिहार का डर और महाराष्ट्र में ‘भिड़ू’ की चिंता?, आखिर ठाकरे बंधुओं के करीब आने से कांग्रेस-शरद पवार को क्यों टेंशन?
By Amitabh Shrivastava | Updated: October 11, 2025 05:08 IST2025-10-11T05:08:20+5:302025-10-11T05:08:20+5:30
शिवसेना(ठाकरे गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के बीच चुनावी चर्चाओं से आगे तालमेल की किसी संभावना को देखा जा रहा है.

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महाराष्ट्र में ठाकरे बंधुओं के करीब आने से जितनी समस्या और असहजता भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) को नहीं हुई, उससे कहीं ज्यादा कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(शरद पवार) गुट को हुई है. दोनों ही दलों ने भले ही पिछले दिनों में दो भाइयों की मुलाकातों पर अपनी नाखुशी जाहिर नहीं की हो, लेकिन मन में चिंता तो थी ही. अब जैसे-जैसे स्थानीय निकायों के चुनाव के दिन पास आने लगे हैं और शिवसेना(ठाकरे गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के बीच चुनावी चर्चाओं से आगे तालमेल की किसी संभावना को देखा जा रहा है,
वैसे-वैसे राज्य के धर्मनिरपेक्ष दलों में महाविकास आघाड़ी(मविआ) के विस्तार पर सतर्कता बरतने के लिए आग्रह किया जाना लगा है. महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हर्षवर्धन सपकाल मविआ में किसी नए ‘भिड़ू’ को शामिल नहीं किए जाने की सार्वजनिक मांग कर अपना स्पष्ट और अप्रत्यक्ष संदेश मनसे को दे चुके हैं.
मविआ में शिवसेना और राकांपा का विघटन होने के बाद से दोनों ही दल अपने संगठनात्मक अस्तित्व को लेकर खासे चिंतित हैं. जिसके चलते विधानसभा चुनाव में बुरी पराजय देखने के बाद अगले चुनावों में सावधानी से काम लेना आवश्यक हो चला है. वहीं विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस ही एक ऐसा दल है, जिसमें कोई टूट नहीं हुई है.
वह अपनी ताकत को हर हाल में आजमाना चाहता है. वह किसी भी सूरत में बंटवारा या हिस्सेदारी बढ़ा कर मुश्किलों को मोल लेना नहीं चाहता है. चाहे उसे इसकी कीमत अकेले चुनाव लड़कर क्यों न चुकाना पड़े. लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद राज्य के सभी दलों की राजनीतिक स्थितियां किसी से छिपी नहीं हैं.
शिवसेना का ठाकरे गुट जहां मविआ के घटक दलों पर निर्भर है, वहीं महागठबंधन में शिवसेना का शिंदे गुट भाजपा के भरोसे ही है. हालांकि सत्ताधारी गठबंधन में राकांपा(अजित पवार) गुट अपनी छवि अलग रखने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है. उसने अपने सिद्धांत और पहचान को सत्ताधारी गठबंधन सरकार के आगे समर्पित नहीं किया है.
भले ही उसके नेताओं को लगातार राज्य में सक्रिय क्यों न रहना पड़ रहा हो. भाजपा ने भी उसके धर्मनिरपेक्ष चेहरे को बनाए रखने के प्रयासों पर कोई शक-सवाल खड़ा नहीं किया है. मविआ में अकेली कांग्रेस राज्य में अपने संगठन को बनाए हुए है और उसे अपनी नीति अनुसार अपने सिद्धांतों के साथ आगे बढ़ना है. किंतु लंबे समय से सत्ता से दूर रहने के भी अपने नुकसान हैं.
उनके साथ रहते हुए गठबंधन करके दूसरे दलों से तालमेल बनाना आसान नहीं है. चुनावों के लिए एकाएक संगठनात्मक क्षमता में वृद्धि करना संभव नहीं है. शिवसेना ठाकरे गुट को अपनी शक्ति में बढ़ोत्तरी करने के लिए समान विचारधारा और संबंधों वाले मनसे जैसे पुराने दल को पास लाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है.
किंतु उसका आसरा कांग्रेस और राकांपा(शरद पवार गुट) के लिए हानिकारक साबित हो सकता है. मुंबई, नागपुर, छत्रपति संभाजीनगर, धुलिया, अकोला, नांदेड़, सोलापुर आदि जैसे अनेक बड़े शहरों में मुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस या राकांपा की ओर है. इसके अलावा अनेक छोटे शहरों में गैर भगवा मत कांग्रेस या राकांपा की झोली में जाते हैं.
वहीं, मुंबई, नागपुर जैसे शहरों में हिंदीभाषियों की संख्या बहुत अधिक है. यदि मविआ में मनसे जुड़ जाती है तो जितना लाभ शिवसेना के ठाकरे गुट को नहीं होगा, उससे कहीं अधिक नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है. इसी कारण उसने स्पष्टता के साथ विरोध का मन बना लिया है. उधर, मनसे जब तक मुस्लिमों के खिलाफ खड़ी होती थी, तब तक भाजपा को कोई समस्या नहीं थी.
मगर हिंदी के विरोध के बाद भाजपा ने उसकी ओर देखना बंद कर दिया है. वह चालाकी के साथ यह कह रही है कि उसकी वजह से ठाकरे बंधुओं का मिलन हुआ. किंतु अंदरूरी सच यह भी है कि उसे मनसे से कोई फायदा नहीं था, ऐसे में वह यदि किसी और गठबंधन का हिस्सा बन जाती है तो भाजपा के लिए लाभदायक ही होगा.
सीट बंटवारे में भी आसानी के साथ आगे वह उसके खिलाफ चुनाव खुलकर लड़ सकेगी. मनसे ने अपने गठन के दो दशक में पाया कम और खोया अधिक है. नासिक में महानगर पालिका को हासिल कर गंवाने से लेकर मुंबई सहित अनेक शहर में अपने नगरसेवक तैयार किए थे. किंतु समय के साथ वे घटते चले गए. वर्तमान में उसकी ताकत के मतों में परिवर्तन का अंदाज लगाना मुश्किल है.
इतना जरूर है कि उससे महाराष्ट्र में नुकसान यदि पूरी तौर पर नहीं हो पाए तब भी बिहार के विधानसभा चुनाव में उसके नाम की मामूली चिंगारी भी समस्या पैदा कर सकती है. इस बात का डर कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही है. अंतर बस इतना ही है कि भाजपा ने समय रहते और किसी बहाने उससे दूरी बना ली और कांग्रेस को सार्वजनिक मंच से बोलना पड़ा.
आने वाले समय में बिहार चुनाव के बाद ही महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय के चुनावों का बिगुल बजेगा. पहले जिला परिषद और उसके बाद नगर पालिका-नगर परिषदों के चुनाव होंगे. जिनमें महाराष्ट्र और बिहार के संदेश एक- दूसरे के लिए केवल महत्वपूर्ण ही नहीं, असरकारक भी होंगे, जो आज राजनीतिक चिंता तथा समीकरण का कारक बन चुके हैं.
अनेक मोर्चों पर राज्य और देश में कांग्रेस आक्रमक रुख अपनाए हुए है. शिवसेना ठाकरे गुट ने विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यकों के प्रति नरमी लाई थी. किंतु मनसे नरमी लाएगी तो वह अपनी नीतियों से भटकी कहलाएगी, जिसका लाभ उठाने के लिए भाजपा और शिवसेना शिंदे गुट तैयार हैं.
अब यदि समय रहते मविआ में कांग्रेस की नए ‘भिड़ू’ की चिंता को गंभीरता से लिया जाता है तो स्थितियां कुछ संभल पाएंगी. अन्यथा अनेक स्थानों पर बहुकोणीय मुकाबले नजर आएंगे. यूं भी स्थानीय निकायों के चुनावों में आलाकमान के आदेशों का पालन मुश्किल ही होता है. कहने के लिए मित्रतापूर्ण मुकाबला होता है, लेकिन पार्टी के दिल का हाल सबको पता चल ही जाता है.