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भरत झुनझुनवाला का ब्लॉगः शिक्षा और पर्यावरण तंत्न में सुधार जरूरी

By भरत झुनझुनवाला | Updated: October 7, 2021 15:40 IST

हमारे फिसलने के दो प्रमुख कारण दिखते हैं। पहला कारण शिक्षा का है। इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट डेवलपमेंट के अनुसार भारत का शिक्षा तंत्न 64 देशों में 59 वें रैंक पर था।

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ठळक मुद्देसमानांतर वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा बनाए गए प्रतिस्पर्धा सूचकांक में 2018 में भारत की रैंक 58 थी जो कि 2019 में फिसलकर 68 हो गई हैइस प्रकार विश्व के 2 प्रमुख प्रतिस्पर्धा मानकों में हम फिसल रहे हैं

स्विट्जरलैंड स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट डेवलपमेंट द्वारा विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिस्पर्धा सूचकांक में भारत की रैंक 2016 में 41 से फिसल कर 2020 में 43 रह गई है। इसी के समानांतर वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा बनाए गए प्रतिस्पर्धा सूचकांक में 2018 में भारत की रैंक 58 थी जो कि 2019 में फिसलकर 68 हो गई है। इस प्रकार विश्व के 2 प्रमुख प्रतिस्पर्धा मानकों में हम फिसल रहे हैं। यदि हमारी यही चाल रही तो देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना निश्चित रूप से अधूरा रह जाएगा।

हमारे फिसलने के दो प्रमुख कारण दिखते हैं। पहला कारण शिक्षा का है। इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट डेवलपमेंट के अनुसार भारत का शिक्षा तंत्न 64 देशों में 59 वें रैंक पर था। हम लगभग सबसे नीचे थे। पर्यावरण की रैंक में हम 64 देशों में अंतिम पायदान यानी 64 वें रैंक पर थे। विश्वगुरु का सपना देखने वाले देश के लिए यह शोभनीय नहीं है।

शिक्षा के क्षेत्न में हमारा खराब प्रदर्शन चिंता का विषय है क्योंकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार वर्ष 2019-20 में हमने अपनी आय यानी जीडीपी का 3।3 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया था। यद्यपि वैश्विक स्तर पर शिक्षा पर 6 प्रतिशत खर्च को उचित माना जाता है फिर भी 3।3 प्रतिशत उतना कमजोर नहीं है। यह रकम 2019-20 में 651 हजार करोड़ रुपए की विशाल राशि बन जाती है। ऐसा समङों कि 6 माह में हमारी जनता जितना जीएसटी अदा करती है और केंद्र एवं राज्य सरकारों को जितना राजस्व मिलता है, उससे अधिक खर्च इन सरकारों द्वारा शिक्षा पर किया जा रहा है। फिर भी जैसा कि ऊपर बताया गया है, शिक्षा में हमारी रैंक 64 देशों में 59 है, जो कि शर्मनाक है। जाहिर है कि शिक्षा पर किए जा रहे खर्च में कहीं न कहीं विसंगति है।

जैसा ऊपर बताया गया है, 651 हजार करोड़ की राशि सरकार द्वारा हर वर्ष शिक्षा पर खर्च की जा रही है। यह रकम केवल सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों पर खर्च की जा रही है। दिल्ली में प्रति छात्न 78,000 रुपए खर्च किए जा रहे हैं। वर्तमान में हमारी विद्यालय जाने वाली जनसंख्या लगभग 46 करोड़ है। यदि इस रकम को देश के सभी छात्नों में बांट दिया जाए तो प्रत्येक छात्न को 14,000 रुपए दिए जा सकते हैं। सामान्य रूप से ग्रामीण इंग्लिश मीडियम विद्यालयों की फीस लगभग 12 हजार रुपए प्रतिवर्ष होती है। यानी जितनी फीस में प्राइवेट विद्यालयों द्वारा इंग्लिश मीडियम की शिक्षा हमारे छात्नों को उपलब्ध कराई जा रही है उससे 5 गुना रकम सरकार द्वारा सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्नों पर खर्च की जा रही है। इसके बावजूद हमारी रैंक नीचे रहती है।

इस विसंगति का मूल कारण यह दिखता है कि सरकारी अध्यापकों को बच्चों को पढ़ाने में कोई रुचि नहीं होती है। यदि उनके रिजल्ट अच्छे आते हैं तो उन्हें कोई सम्मान नहीं मिलता है और यदि उनके रिजल्ट खराब आते हैं तो उन्हें कोई सजा नहीं मिलती है। विशेष यह कि सरकार ने फीस माफ करके, मुफ्त पुस्तक, मुफ्त यूनिफार्म और मुफ्त मध्याह्न् भोजन वितरित करके छात्नों को सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेने के लिए सम्मोहित कर लिया है। इसलिए यदि हमें अपनी प्रतिस्पर्धा की क्षमता को बढ़ाना है तो अपनी शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। सुझाव है कि सरकार द्वारा खर्च की जा रही रकम को छात्नों को सीधे वाउचर के माध्यम से दिया जाए और छात्नों को स्वतंत्नता दी जाए कि वे अपने मनपसंद के गुणवत्तायुक्त विद्यालय में उन वाउचरों के माध्यम से अपनी फीस अदा कर सकें। यदि ऐसा किया जाएगा तो महंगे सरकारी विद्यालय में दाखिला लेने का प्रलोभन समाप्त हो जाएगा और उस रकम को कुशल प्राइवेट विद्यालयों की शिक्षा में सुधार के लिए खर्च किया जा सकेगा। हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार आ जाएगा।

दूसरी समस्या पर्यावरण की है जिसमें हम 64 देशों में 64 वें पायदान पर अर्थात सबसे नीचे हैं। समस्या यह है कि सरकार समझ रही है पर्यावरण के अवरोध से हमारी आर्थिक गतिविधियां रुक रही हैं और पर्यावरण के अवरोध को समाप्त कर अर्थव्यवस्था को त्वरित बढ़ाना होगा। जैसे सरकार ने हाल में थर्मल बिजली संयंत्नों द्वारा प्रदूषण के मानकों को ढीला कर दिया है और पर्यावरण स्वीकृति के नियमों में ढील दी है। सरकार का मानना है कि पर्यावरण कानून को नर्मी से लागू करने से उद्यमियों द्वारा उद्योग लगाना आसान हो जाएगा और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी। लेकिन प्रभाव इसका ठीक विपरीत हो रहा है। जैसा ऊपर बताया गया है कि प्रतिस्पर्धा सूचकांक में हमारे फिसलने का एक प्रमुख कारण पर्यावरण है।

प्रश्न है कि उसी पर्यावरण को और कमजोर करने से हमारी प्रतिस्पर्धा शक्ति में सुधार कैसे संभव है? अत: सरकार को समझना होगा कि पर्यावरण रक्षा करने से ही हमारी प्रतिस्पर्धा शक्ति बढ़ेगी। कारण यह कि जब हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहता है तो जनस्वास्थ्य सुधरता है और नागरिकों की कार्यक्षमता बढ़ती है। दूसरा यह कि जब हमारा पर्यावरण साफ रहता है तो निवेशकों को निर्भय होकर भारत आकर निवेश करने में संकोच नहीं होता है। वे प्रदूषित स्थानों पर उद्योग लगाने में कतराते हैं।

तीसरा यह कि जब पर्यावरण की रक्षा करने के लिए हम साफ तकनीकों का उपयोग करते हैं, जैसे यदि सरकार नियम बनाती है कि उद्योगों को ऊर्जा की खपत कम करनी होगी तो उद्योगों द्वारा अच्छी गुणवत्ता के बिजली के बल्ब, पंखे, एयर कंडीशिनिंग, मोटरें इत्यादि उपयोग में लाए जाते हैं जो अंतत: उनकी उत्पादन लागत को कम करते हैं। जिस प्रकार बच्चे को पढ़ाई करने के लिए दबाव डालना पड़ता है लेकिन पढ़ाई कर लेने के बाद उसका भविष्य उज्ज्वल हो जाता है, उसी प्रकार यदि सरकार पर्यावरण की रक्षा के लिए उद्योगों पर दबाव डालती है तो अंतत: उद्योग कुशल हो जाते हैं।

टॅग्स :एजुकेशनEnvironment Department
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