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विधानसभा चुनावः बिहार कब उबरेगा पिछड़ेपन के अभिशाप से?, शिक्षा और सुशासन के संकट से जूझ रहे

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 31, 2025 05:15 IST

Assembly Elections: पांचवीं शताब्दी के चीनी बौद्ध भिक्षु फाह्यान को प्रभावित किया था, दुनिया भर में हर अच्छी चीज के लिए जाना जाता था. लेकिन अब नहीं.

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ठळक मुद्दे अपराध, कुशासन, गरीबी और घटिया शिक्षा व्यवस्था के गहरे दलदल में धंस गया.ऐतिहासिक संदर्भों और अकादमिक चर्चाओं के अलावा कोई खास महत्व नहीं है. कई भारतीय राज्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सुशासन के संकट से जूझ रहे हैं.

अभिलाष खांडेकर

बिहार हमेशा सुर्खियों में रहता है, अक्सर गलत वजहों से. चुनाव नजदीक आते ही, सबकी निगाहें सर्वाधिक जनसंख्या वाले बिहार और लंबे समय से वहां के मुख्यमंत्री रहे 74 वर्षीय नीतीश कुमार पर टिकी हैं, जो अपनी राजनीतिक अवसरवादिता के लिए जाने जाते हैं. बिहार दशकों से एक पहेली और विरोधाभास बना हुआ है. कभी शिक्षा और अनूठी स्वास्थ्य सेवाओं का केंद्र रहा बिहार, जिसने पांचवीं शताब्दी के चीनी बौद्ध भिक्षु फाह्यान को प्रभावित किया था, दुनिया भर में हर अच्छी चीज के लिए जाना जाता था. लेकिन अब नहीं.

वोट बैंक की राजनीति और भ्रष्ट नेतृत्व के कारण बिहार अपराध, कुशासन, गरीबी और घटिया शिक्षा व्यवस्था के गहरे दलदल में धंस गया. नालंदा या विक्रमशिला की महान विरासतों का आज ऐतिहासिक संदर्भों और अकादमिक चर्चाओं के अलावा कोई खास महत्व नहीं है. वैसे कई भारतीय राज्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सुशासन के संकट से जूझ रहे हैं,

लेकिन बिहार राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़े राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है, आप किसी भी नजरिये से देखें. पलायन, अपराध, बेरोजगारी की समस्याएं बरकरार हैं. निश्चित रूप से, राजद के 15 साल के शासन के दौरान बिहार की दयनीय स्थिति के लिए लालू प्रसाद और उनके परिवार को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. वह जंगल राज था,

लेकिन 2005 से सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे और एनडीए के मजबूत सहयोगी नीतीश कुमार भी कुछ खास नहीं कर पाए, जैसा कि इंजीनियर से राजनेता बने नेता से अपेक्षित था. अगर लालू पर बिहार को अव्यवस्था और अराजकता में डुबोने का आरोप लगाया जाता है, तो नीतीश, जिन्हें अक्सर तेजी से बदलती वफादारी के अपने कीर्तिमान के कारण ‘पलटू कुमार’ कहा जाता है,

अपने लंबे कार्यकाल और राष्ट्रीय राजनीति व प्रशासन के अनुभव के साथ, बिहार की कायापलट कर सकते थे. वे असफल रहे. उन्होंने प्रयास जरूर किए और आर्थिक विकास के उपायों के चलते उन्हें 2010 में जीत मिली; 2015 में ग्रामीण विद्युतीकरण पर उनके जोर ने उन्हें ‘सुशासन बाबू’ बना दिया, लेकिन एक सीमा तक ही.

वे चाहते तो मोदी के साथ बिहार को विकसित बना सकते थे पर वे राजनीति में अधिक मशगूल दिखे. अगर लालू भ्रष्ट, जातिवादी थे और पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे थे, तो नीतीश ईमानदार व गंभीर माने जाते थे, लेकिन अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे.

उन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कैबिनेट सहयोगी के तौर पर रेलवे, भूतल परिवहन और कृषि जैसे महत्वपूर्ण विभागों को संभाला था और उनके अधीन प्रशिक्षण प्राप्त किया.बिहार की त्रासदी यह है कि स्वार्थी राजनेताओं के सत्ता में आने से पहले इसका ‘डीएनए’ बहुत बेहतर था.

भारत में समग्र पिछड़ेपन का आकलन करने वाली विभिन्न समितियों के तमाम प्रयासों के बावजूद बिहार आज भी ‘बीमारू’ राज्य बना हुआ है. पहली समिति 1966-71 में योजना आयोग द्वारा गठित की गई थी, उसके बाद पांडे समिति और फिर वांचू समिति ने क्षेत्रीय असंतुलन का अध्ययन किया.

चक्रवर्ती समिति ने मानदंड निर्धारित किए और 1978 में शिवरामन समिति ने पिछड़े राज्यों की कमियों को कम करने के उपाय सुझाए. बिहार की असली समस्या उसके राजनीतिक शासक हैं. गरीबी हटाने के बजाय, वे आजादी के 75 साल बाद भी वहां मुफ्त में नगदी बांट रहे हैं और वोट बटोरने में लगे हैं.  

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