Assembly Elections 2024: मुफ्त की रेवड़ियों की चुनावी राजनीति फिर चर्चा में है. इस पर प्रतिबंध के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दाखिल हुई है तो महाराष्ट्र एवं झारखंड के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों की बारिश का मौसम है. चुनावी राज्यों में अक्सर ‘त्यौहारी सेल’ जैसा माहौल होता है, जहां ग्राहक को आकर्षित करने में दुकानदार कोई कसर नहीं छोड़ते. ग्राहकों को ऑफर का लाभ उठाने के लिए फिर भी अपनी कुछ जेब ढीली करनी पड़ती है, लेकिन राजनीति में तो करदाता की कमाई से राजनीतिक दल ‘दानवीर’ बनकर वोट बटोरते हैं.
देश के विकास की कीमत पर अपने वोट बैंक का विकास करते हुए सत्ता कब्जाते हैं- और हर कोई मूकदर्शक बना रहता है. चुनाव जीतने के लिए लोक-लुभावन वायदों की राजनीतिक प्रवृत्ति तो पुरानी है, लेकिन मुफ्त की रेवड़ियां अब चुनाव जीतने का आसान कारगर नुस्खा बनती दिख रही हैं.
वायदे सरकार बनते ही राज्य के कायाकल्प के किए जाते हैं, पर उनमें से ज्यादातर बड़े वायदे अंतिम समय तक लटके रहते हैं या फिर उन पर प्रतीकात्मक रूप से ही अमल किया जाता है. ऐसा इसलिए भी, क्योंकि हर मतदाता वर्ग को लुभाने के लिए वायदों की बारिश करते समय उनकी व्यवहार्यता और आर्थिक प्रभाव का आकलन ही नहीं किया जाता.
जाहिर है, कोई सत्तारूढ़ नेता या दल इन योजनाओं का आर्थिक बोझ नहीं उठाता. बोझ ईमानदार करदाताओं पर ही पड़ता है, जिनका प्रतिशत विदेशों की तुलना में हमारे देश में बहुत कम है. यह सवाल भी बार-बार उठता रहा है कि क्या उन करदाताओं से सहमति नहीं ली जानी चाहिए, जो देश के विकास के लिए कई तरह के कर देते हैं, न कि चुनावी ‘रेवड़ियां’ बांट कर सत्ता हासिल करने की राजनीति के लिए?
बेशक नागरिकों को जीवन के लिए आवश्यक और न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाना कल्याणकारी राज की जिम्मेदारी है. देश या प्रदेश की सरकार अपने नागरिकों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाए तो उसकी प्रशंसा ही की जाएगी. सीमित मात्रा में मुफ्त पानी और सस्ती बिजली जैसी सुविधाओं की सोच भी सकारात्मक है.
पेट्रोल-डीजल और गैस सिलेंडर जैसी दैनिक उपभोग की चीजें भी आम आदमी की क्रय शक्ति के अंदर रखने की कोशिश की जानी चाहिए, लेकिन कोई वस्तु या पैसा बांटना तो मतदाताओं को रिश्वत देने जैसा है. कभी तमिलनाडु से शुरू हुआ मुफ्त की रेवड़ियों का चुनावी खेल अब पूरे देश में खुलकर खेला जा रहा है. चुनाव-दर-चुनाव मुफ्त की रेवड़ियों की प्रवृत्ति बढ़ रही है और सरकारी खजाने पर उसका बोझ भी, जिसका नकारात्मक असर विकास कार्यों पर साफ नजर आता है.