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Assembly Elections 2024: करनी ही नहीं, कथनी भी बनाती है अच्छा-बुरा 

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: November 15, 2024 05:41 IST

Assembly Elections 2024: सब लगाते हैं इस तरह के नारे. कोई आरोप चिपक जाए तो तीर, वरना तुक्का ही सही. जिस तरह की आरोपबाजी, नारेबाजी चुनावों में होती है, वह हैरान कर देने वाली है.

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ठळक मुद्देयह बात हमारे भारत तक ही सीमित नहीं है. परेशान करने वाली बात होनी चाहिए. व्यवस्था में हमारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी होता है, दुश्मन नहीं.

Assembly Elections 2024: नेता चाहे किसी भी रंग की टोपी पहनने वाले हों, सबकी कथनी एक-सी होती है. चुनाव-दर-चुनाव देश का मतदाता अपने नेताओं द्वारा भरमाया जाता है. कुछ ऐसा ही हाल नेताओं के नारों का भी है. हर चुनाव में नए-नए नारे सुनाई देते हैं, हर चुनाव में नए-नए नारों से नेता हमें भरमाने की कोशिश करते हैं. चुनाव-प्रचार में एक-दूसरे पर आरोप लगाना नई बात नहीं रह गई है. सब लगाते हैं इस तरह के नारे. कोई आरोप चिपक जाए तो तीर, वरना तुक्का ही सही. जिस तरह की आरोपबाजी, नारेबाजी चुनावों में होती है, वह हैरान कर देने वाली है.

यह बात हमारे भारत तक ही सीमित नहीं है. हाल ही में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में एक-दूसरे पर जिस तरह के आरोप लगाए गए वह परेशान करने वाली बात होनी चाहिए. अमेरिका तो दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र होने का दावा करता है. और हमारा भी दावा है कि सबसे पुराना गणतंत्र है हमारा देश. जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी होता है, दुश्मन नहीं.

ऐसे में अनर्गल आरोपों वाली राजनीति उन सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए जो अपने आपको जिम्मेदार नागरिक समझते हैं. आरोप लगाना गलत नहीं है. पर आरोप बेबुनियाद नहीं होने चाहिए. साथ ही मर्यादाओं का ध्यान रखा जाना भी जरूरी है. बशीर बद्र का एक शेर है, ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे/फिर कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों.’

यह बात हमारे राजनेताओं को समझ क्यों नहीं आती?  मैं अक्सर सोचा करता हूं कि ऐसे लोग जब ‘फिर से दोस्त’ बन जाते हैं तो एक-दूसरे से आंख कैसे मिलाते होंगे? क्या उन्हें सचमुच शर्म नहीं आती? यह दुर्भाग्य ही की बात है कि आज हमारी राजनीति में इस तरह की शर्म के लिए कोई स्थान बचा नहीं दिख रहा. शर्म तो इस बात पर भी आनी चाहिए कि हमने राजनीति को पूरी तरह अनैतिक बना दिया है.

मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र से मैंने एक बार यह जानना चाहा था कि कौनसा शब्द ठीक है, राजनीतिक या राजनैतिक? मेरे उस मित्र ने तत्काल जवाब दिया था, ‘राजनीतिक ही सही हो सकता है - राजनीति में नैतिकता होती ही कहां है?’ फिर हम दोनों हंस पड़े थे. पर आज सोच रहा हूं यह बात हंसने की नहीं थी, दुखी होने की थी.

पीड़ा होनी चाहिए थी हमें यह सोच कर कि हमारी राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं बचा. करनी ही नहीं, कथनी भी हमें अच्छा या बुरा बनाती है. यह बात हमारे नेताओं को भी समझनी होगी. जब तक हम देश के 140 करोड़ नागरिकों को भारतीय के रूप में नहीं स्वीकारेंगे, बंटने और कटने की भाषा बोलते रहेंगे, हम अपने आपको विवेकशील समाज का हिस्सा नहीं मान सकते.

यह मान कर भी बैठना गलत है कि राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है. जो जितने ऊंचे पद पर बैठा है, उसका दायित्व उतना ही अधिक होता है. कब समझेंगे इस बात को हमारे नेता? कब बोलने से पहले तौलने की बात समझेंगे वे?

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