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पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः योगी और केजरीवाल मॉडल 2024 का नया सच

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Updated: March 11, 2022 09:26 IST

पांच राज्यों के चुनाव होकर भी पहली बार हर राज्य के जनादेश ने परंपरा को त्यागा। खुद को राष्ट्रीय धारा से जोड़ने की मशक्कत ने ही यूपी में तीस साल के बाद किसी पार्टी को दुबारा जिताया।

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पारंपरिक राजनीति के दिन लद चुके हैं। कमंडल और मंडल की राजनीति की उम्र पूरी हो चली है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बगैर भाजपा की जीत ने जता दिया कि जाति पर टिके क्षत्रप अब अपने बूते सत्ता पा नहीं सकते। वैकल्पिक राजनीति केजरीवाल ने पकड़ी। पंजाब को दिल्ली की तर्ज पर जीतकर ये एहसास करा दिया कि सत्ता को अपना मॉडल बनाना होगा। राष्ट्रीय राजनीति के आसरे क्षत्रपों को ध्वस्त कर खुद को राज्यवार परिभाषित करने की समझ भाजपा ने विकसित की। कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीतिक दल होकर भी किसी एनजीओ की तर्ज की राजनीति से आगे निकल नहीं पाई। कांग्रेस ने  जिस नए मॉडल को यूपी में पेश किया, उस रास्ते को अपने ही शासित राज्यों में लागू नहीं किया।

तो पांच राज्यों के चुनाव होकर भी पहली बार हर राज्य के जनादेश ने परंपरा को त्यागा। खुद को राष्ट्रीय धारा से जोड़ने की मशक्कत ने ही यूपी में तीस साल के बाद किसी पार्टी को दुबारा जिताया। यानी योगी आदित्यनाथ ने एक झटके में मुलायम, मायावती या अखिलेश के आगे इतनी बड़ी लकीर खींच दी जहां खुद को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लाकर खड़ा कर दिया। और अखिलेश की समूची राजनीति को एमवाई  (मुस्लिम-यादव) दायरे में सिमटा दिया। यानी 2022 का सबसे बड़ा मैसेज तीन चेहरे मोदी, योगी और केजरीवाल के आसरे 2024 के लिए निकला। मोदी का जादू बरकरार है। योगी भाजपा के नए ब्रांड हैं जो 2024 में असर डालेंगे। आम आदमी केजरीवाल को 2024 के रथ पर चाहे-अनचाहे सवार करेगा। विपक्ष अब केजरीवाल की अगुवाई को खारिज कर नहीं पाएगा।

तो पंजाब में परिवर्तन की लहर और यूपी में न बदलने की सोच ने तीन बातों को इस चुनाव में उभार दिया। पहला, किसी भी नई राजनीतिक सोच को मान्यता देने के लिए जनता तैयार है। उसके लिए मॉडल, संगठन और विजन होना चाहिए जो पंजाब में उभरा। केजरीवाल जीत गए। कुछ नया नहीं होगा तो पुरानी राजनीति से जनता ऊब चुकी है तो सत्ता को क्यों बदले, ये बात यूपी में खुले तौर पर उभरी, जहां समाजवादी पार्टी जमीनी मुद्दों के उभरने के बावजूद खारिज हुई। अखिलेश बुरी तरह हार गए। दूसरा, जातीय समीकरण के आसरे जीत तय नहीं मानी जा सकती। जाति पर टिके नेताओं के पीछे उन्हीं के जाति वोट चलने को तैयार नहीं हैं। पंजाब में 33 फीसदी दलित वोट बैंक के बीच कांग्रेस के दलित सीएम होने के बावजूद कांग्रेस की हार ने यह साबित कर दिया। वहीं यूपी में मौर्य, सैनी, चौहान, पटेल सरीखे नेताओं की पोटली समेटे अखिलेश यादव की झोली में कोई जाति नहीं गई। ओबीसी यानी पिछड़े तबके ने भाजपा का साथ दिया। तीसरा, पहली बार हिंदू-मुस्लिम कहीं नहीं था। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं था। और जमीनी मुद्दों से प्रभावित वोटर और राजनीतिक दलों के आसरे उम्मीद और आस पाले वोटर ने क्षत्रपों को खारिज कर राष्ट्रीय राजनीतिक सत्ता को पसंद किया। यहां मोदी ब्रांड या कहें प्रधानमंत्नी का औरा यूपी की गलियों से लेकर उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में नजर आया।

पर 2022 का संदेश कहीं आगे का है। क्योंकि किसानों के गढ़ यानी पश्चिमी यूपी में ही किसान आंदोलन की नहीं चली। लखीमपुर में केंद्रीय मंत्नी के पुत्र का किसानों को जीप से रौंदना भी वोटरों में गुस्सा पैदा कर नहीं पाया। बेरोजगारी, महंगाई पर मुफ्त राशन और मोदी की योजनाओं ने मट्ठा डाल दिया। भगवा पहन कर योगी आदित्यनाथ ने हिंदुत्व को बुलंद किया तो अयोध्या में राम मंदिर से लेकर काशी कॉरीडोर में घूमते नरेंद्र मोदी ने निजीकरण, कॉरपोरेट दोस्तों को कौड़ियों के मोल सार्वजनिक उपक्रम की बिक्री और देश की आर्थिक बदहाली को उभरने ही नहीं दिया। लेकिन 2022 ने नए संकेत ये भी दे दिए कि मोदी मॉडल को चुनौती देने के लिए भाजपा के भीतर योगी मॉडल उभरा तो भाजपा की राजनीति को चुनौती देने के लिए केजरीवाल मॉडल भी उभरा। यूपी में मायावती की राजनीति खत्म होने का ऐलान हो गया तो अखिलेश अपनी राजनीति को कैसे संभालेंगे, अब ये भी सवाल है और बड़ा सवाल ये भी है कि अगर कांग्रेस नहीं संभली तो 2027 में यूपी में भी केजरीवाल भाजपा को चुनौती देने के लिए सामने होंगे।

यानी चुनाव चाहे 5 राज्यों के हुए लेकिन जनादेश का मैसेज साफ है कि राष्ट्रीय राजनीति के आसरे ही भविष्य की राजनीति तय होगी, जिसके ब्रांड एंबेसेडर नरेंद्र मोदी हैं तो नए मास्टर केजरीवाल हैं और नए मॉडल योगी आदित्यनाथ हैं। कांग्रेस को नए विजन की खोज करनी है। पुराने पारंपरिक नेताओं को जनता पसंद नहीं करती। वो चाहे पंजाब में कैप्टन हों या बादल पारिवार हों या उत्तराखंड में हरीश रावत। कमंडल को भाजपा हिंदू राष्ट्र के आसरे आत्मसात कर चुकी है। विकास का समूचा खाका ही निजीकरण की इकोनॉमी पर जा टिका है। कॉरपोरेट नए वेलफेयर स्टेट की परिभाषा गढ़ेगा क्योंकि चुनावी जीत लोकतंत्र का ऐसा स्तंभ है जिसके तले सारी परिभाषाएं सही होती हैं।

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